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________________ जिनप्रतिमा मानने और पूजने की चर्चा से लिखा जावे तो ग्रंथ अधिक विस्तार का रूप धारण कर लेता। अतः संक्षिप्त लिखने में ही संतोष माना है। यहाँ चर्चा समाप्त होती है। जब चर्चा समाप्त हो गई तो सौदागरमल निरुत्तर हो गया परन्तु उसने अपना हठ-कदाग्रह न छोडा। तब तपस्वी मोहनलालजी ने कहा कि "पूज्य गुरुदेव ! अब आप सुखपूर्वक विचरण करें । मैंने जो कुछ जानना था जान लिया और समझ लिया है। गुरुदेव ! आपकी श्रद्धा सच्ची है। श्रीवीतराग सर्वज्ञ प्रभु के आगमानुकूल है। अब इस विषय में मेरे मन में कोई सन्देह नहीं रहा । आप मेरे धर्माचार्य हो और मैं आप का श्रावक हूँ।" ___ तब तपस्वी मोहनलालजी तो स्यालकोट में ही रहे और आप वहाँ से विहार कर गये । पिंडदादनखाँ, रावलपिंडी आदि अनेक नगरों में विचरते हुए चेले धर्मचन्द को साथ लेकर पुनः स्यालकोट पधारे । वहाँ जाकर धर्मचन्द का मन बदल गया, वह आपसे अलग हो गया और जिन टोले से आपके पास आया था उसी टोले में जा मिला । वह जाते हुए आपके दो हस्तलिखित ग्रंथ अपने साथ लेता गया । स्यालकोट में लोंकागच्छ का यति (श्रीपूज्य) १. ग्रंथ के बढ जाने के भय से यहाँ पर जिनप्रतिमा के विषय में आगमों में आए हुए पाठों को तथा चैत्य, जिनप्रतिमा आदि शब्दों के अर्थ जिनमंदिर, तीर्थंकर की मूर्ति और तीर्थ होते हैं; इसका विस्तार नहीं लिखा । विशेष जिज्ञासु हमारी (हीरालाल दूगड) द्वारा लिखी हुई "जिनप्रतिमापूजन रहस्य तथा स्थापनाचार्य की अनिवार्यता" नामक पुस्तक को अवश्य पढकर जिज्ञासापूर्ति करने की कृपा कर लें। Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [69]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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