SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य प्ररूपणा की और २७ वीतराग केवली भगवन्तों के शुद्ध पवित्र मार्ग को अपनाने की आवश्यकता है या अपने माने हुए पर दृष्टिराग अथवा कदाग्रह को ?" जब प्रात: काल भाई आपके पास आये तो आपने पूछा “भाइयो ! आप लोगों को श्रीवीतराग केवली प्रभु का धर्म चाहिये अथवा अपने माने हुए पर दृष्टिराग ? क्या आपने वीतराग केवली भगवन्तों की प्ररूपणा के विरुद्ध और स्वकपोल-कल्पित मार्ग अपनाये रखना है ? अथवा उनके द्वारा प्ररूपित सत्यमार्ग ?" सबने एक स्वर से कहा कि "हमें किसी का कुछ देना नहीं है। न तो हमें दृष्टिराग है और न पक्षपात न कदाग्रह है और न हठाग्रह । हमें तो वीतराग केवली भगवन्तों के सच्चे मार्ग को स्वीकार करने में प्रसन्नता है। हम तो आज तक यही समझ रहे हैं कि जिस मार्ग को हमने अपनाया हुआ है, जिस मार्ग का आचरण हम कर रहे हैं, वही सच्चा मार्ग है। फिर भी यदि इसमें हमारी भूल है तो आप बतलाइये । हमने तो आज तक आप लोगों (स्थानकमार्गी साधुओं) के द्वारा बतलाये हुए मार्ग पर ही अटल श्रद्धा रखी है और उसी के अनुसार ही आचरण करते चले आ रहे हैं।" यह सुनकर आपने अपने विचार सब भाइयों से कह सुनाये । आपने कहा कि "मेरी श्रद्धा जिन - प्रतिमा मानने की तथा मुखपत्ती मुख पर न बाँधने की पक्की है। क्योंकि श्रीवीतराग केवली भगवन्तों ने जैनागमों में ऐसा ही फरमाया है।" भाइयों ने कहा "गुरुदेव ! आप यह क्या कह रहे हैं! हम और हमारे पुरखा जिस बाइसटोला (स्थानकमार्गी) मत को मानते चले आ रहे हैं, यह इन दोनों बातों को मानता नहीं है। इस टोले के साधु सदा यही कहते आ रहे हैं कि जिन - प्रतिमा पूजन में मिथ्यात्व है, हिंसा है। आगमों Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [27]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy