SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सद्धर्मसंरक्षक उसे सम्यग्दृष्टि प्राप्त होगी तब वह स्वयं ही अपनी भूलों के लिये पश्चात्ताप करेगा । वीतराग के सिद्धान्त की बातें बहुत मार्मिक हैं । मेरे जैसा अल्पज्ञ उन्हें कहाँ तक लिखे । उनके सिद्धान्त बडी गंभीरता से मनन करने योग्य हैं । ज्ञान बिना समझना कठिन है।" सद्धर्म की प्ररूपणा के लिये अवसर की प्रतीक्षा धीरे-धीरे ऋषि अमरसिंहजी बहुत निन्दा करने लगे । आप चर्चा के बाद अमृतसर से लाहौर की तरफ विहार कर गये । आपने सोचा कि "मेरी श्रद्धा तो सच्ची है और आगमानुकूल है। पर इस पंजाब में न तो मेरा कोई संगी-साथी है और न ही कोई मेरे विचारों का समर्थक है । ऐसा होते हुए भी मुझे वीतराग केवली प्रभु के आगम-विरुद्ध खोटी श्रद्धा रखना तथा उसकी प्ररूपणा करना कदापि उचित नहीं है । पर मेरे सामने विकट समस्या यह है कि यदि मैं इनके साथ वाद-विवाद में उलझ गया तो मेरे अकेले की इन लोगों के सामने दाल न गलेगी। मेरा पंजाब में विचरना, धर्मसंयम का पालन करना भी दूभर हो जाएगा। पूज (यति) तो क्रिया और आचार हीन है। जैसे पंजाब में यति क्रिया और आचार हीन हैं, वैसे ही सब जगह होंगे ! पंजाब में तो आजकल मैंने कोई साधु जैन सिद्धान्तानुसार चलनेवाला देखा नहीं और न सुना ही है। यदि मैं खुल्लमखुल्ला जिनप्रतिमा को मानने तथा मुखपत्ती को मुख पर न बाँधने की प्ररूपणा करने लग जाऊंगा तो कोई मेरे पास आवेगा भी नहीं । इसलिये मुझे बडे धैर्य के साथ अपने आपको संभालते हुए और अपनी श्रद्धा का त्याग न करते हुए इसी वेष में रह कर संयमयात्रा का निर्वाह करना चाहिये । कुछ समय की प्रतीक्षा और करनी चाहिये।" Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [24]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy