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________________ सद्धर्मसंरक्षक वैयावच्च छोड दी और आपसे जुदा होकर अन्यत्र विहार कर गये। तथा सब जगह आपके विरुद्ध जोर-शोर से प्रचार शुरू कर दिया कि "बूटेराय की श्रद्धा खोटी है, उसकी जिनप्रतिमा मानने की और मुँहपत्ती को मुख पर न बाँधने की श्रद्धा हो गई है।" कहने लगे कि "हमारे पूर्वज ऋषि हरिदास, ऋषि मलूकचन्द आदि आचार्य हो गये हैं, जिन्होंने वीतराग का धर्म विच्छेद हो जाने पर चारित्र अंगीकार करके पुनः वीतराग का धर्म प्रगट किया । ऐसे महापुरुषों को बुटेराय निहनव, अन्यलिंगी, पाखंडी कहता है। मैंने इसकी ये १ स्थानकमार्गी मानते हैं कि "जिनप्रतिमा का विरोध करके और चौबीस घंटे दिन-रात सदा मुख पर मुंहपत्ती बांधे रखने के सिद्धांत को चालू कर लवजी नामक ऋषिने सूरत (गुजरात) में वि० सं० १७०९ (ई० स० १६५२) में यह मत निकाला और नवीत पंथ की स्थापना कर पुनः वीतराग धर्म को प्रकट किया।" २ तुलना के लिये देखिये - "श्रीमद् आचार्य अमरसिंहजी महाराज का जीवन चरित्र"। [स्थानकमार्गी उपाध्याय आत्माराम (स्थानकमागियों के आचार्यसम्राट आत्माराम)जी कृत] उस काल में ही अमृतसर में श्रीस्वामी नागरमल्लजी महाराज का एक शिष्य बूटेरायजी नामक था, जिसमें वहाँ पर तप करना आरम्भ कर रखा था । किन्तु उपवासादिक तप करते हुए परिणामों में शिथिलता बढ़ गई थी। अपितु श्रीपूज्यमहाराज (अमरसिंह) बूटेरायजी के मन के भाव न जानते हुए तप कर्म में सहायक हुए। किन्तु पाप कर्म कब तक गुप्त रह सकता है। इस कहावत के अनुसार अन्यदा समय बूटेरायजी श्रीमहाराजजी से कहने लगे कि हे अमरसिंहजी ! आजकल तो साधुपथ का ही व्यवच्छेद हो गया है। श्रीमहाराजने कहा बूटेरायजी ! श्रीभगवतीसूत्र में लिखा है कि पंचमकाल के अन्त तक भी चतुर श्रीसंघ रहेगा। आप अपने मन को मिथ्यात्व में क्यों प्रवेश कराते हो तथा हमारे चारित्र आदि को भी देखिए (कि साधुपथ है अथवा नहीं)। ___ मुखपत्तीचर्चा नामक पुस्तक में भी पूज्य बूटेरायजी लिखते हैं कि अभी जैन सिद्धान्त में कहे मुजब कोई साधु हमारे देखने में नहीं आया । (पृष्ठ ...., ....)। Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5 [22]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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