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________________ आगमानुकूल चारित्र पालने की धून विहार किया। पटियाला नगर में पधारे । वहाँ वि० सं० १८९६ (ई० सं० १८३९) का चौमासा करके अमृतसर पधारे । वहाँ से स्यालकोट, जम्मू, रावलपिंडी आदि नगरों में विचरते हुए आप गुजरांवाला पधारे और वि० सं० १८९७ (ई० स० १८४०) का चौमासा गुजरांवाला में किया । चौमासे उठे आप पटियाला में पधारे । रास्ते में आपको ऋषि अमरसिंहजी भी आ मिले । आपसे कहने लगे कि "बूटेरायजी ! मैं और आप इकडे विचरेंगे। मेरा और आपका टोला एक ही है ।" अब ऋषि बूटेरायजी और ऋषि अमरसिंहजी दोनों साथ में विहार करते हुए अमृतसर पधारे । ऋषि अमरसिंहजी आप की तपस्या में वैयावच्च अच्छी तरह करने लगे। ऋषि बूटेरायजी की तपस्या तो सदा चालू ही रहती थी। बेला, तेला, पचोला, पंद्रह उपवास तो मामूली बात थी । बीचबीच में एकांतरे में आयंबिल आदि का तप भी चालू रहता था । पारणे के दिन मात्र एक ही बार गोचरी जाना और एक ही पात्र में जो कुछ मिल जाता उससे दिन में मात्र एक बार ही आहार कर लेते । पारणा और आहार सब एक साथ ही हो जाता था । अभिग्रह भी बहुत करते थे और वे सब पूरे हो जाते थे। कडकती सर्दी में भी मात्र एक ही सूती चादर में रहते थे। कभी-कभी वह भी उतार कर ध्यान करते थे। आपकी ऋषि अमरसिंहजी के साथ प्रायः धर्मचर्चा भी होती रहती थी। वह आपके सामने निरुत्तर हो जाते थे। जब ऋषि अमरसिंहजी को यह निश्चय मालूम हो गया कि पूज्य बूटेरायजी की श्रद्धा जिनप्रतिमा को मानने की है तथा मुखपत्ती को मुख पर बाँधने की नहीं है । तब उन्होंने आपकी Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [21]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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