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________________ १८२ सद्धर्मसंरक्षक विधान साधु के लिए और द्रव्य-भाव से गृहस्थ के लिए शास्त्रविहित है। (४) इस पंथ का साधुवेष जैनागम सम्मत वेष नहीं है, किन्तु स्वकल्पित है और वास्तव में विचार किया जावे तो यह पंथ लौंका और लवजी की मनःकल्पित विचारधारा की ही उपज है। इस पंथ की परम्परा के साधु वेष में सबसे अधिक महत्त्व का स्थान मुखवस्त्रिका (मुहपत्ती) को ही प्राप्त है । जब कि जैनागमों में साधु-दीक्षा के लिये केवल रजोहरण और पात्रां इन दो का ही उल्लेख है। मुखवस्त्रिका को वहाँ स्थान नहीं दिया । कोई व्यक्ति कितना भी ज्ञानवान या संयमशील क्यों न हो, पर जब तक उसके मुँह पर डोरेवाली मुखवस्त्रिका न बंधी हो तब तक वह साधु नहीं कहला सकता और न ही उसे वन्दना-नमस्कार किया जाता है। आजकल तो इस मत के विद्वान साधुओं में भी इसका व्यामोह अपनी सीमा को पार कर गया है। उन्हों ने तीर्थंकरों, गणधरों तक के मुख को भी डोरेवाली मुहपत्ती से अलंकृत करके अपनी विद्वत्ता को चार चांद लगा दिये हैं। साम्प्रदायिक व्यामोह में सब कुछ क्षम्य है। संक्षेप में कहें तो इस पंथ में मुहपत्ती की उपासना को जिनप्रतिमा की शास्त्रविहित उपासना से कहीं अधिक महत्त्व का स्थान प्राप्त है। ___ महाराजश्रीजी ! आपको इस संप्रदाय के मानस का खूब अनुभव है, तभी आपने अपनी धार्मिक क्रांति में मुंहपत्ती को मुंह पर बाँधे रखा और उसे आपने आज तक अपने मुख से अलग नहीं किया। क्योंकि मानव के मानस को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये उसकी आवश्यकता प्रतीत होती रही है। इस दृष्टि से देखें तो Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) 1(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [182]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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