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________________ प्रत्याघात और मुँहपत्ती-चर्चा १४५ अभी सख्त सर्दी का मौसम है। जरा खली ऋत आने दीजिये, फिर सिद्धाचलजी की यात्रा करने को चले जाना।" प्रत्याघात और मुंहपत्ती-चर्चा शास्त्राज्ञा है कि जैन साधु मुख के सामने मुंहपत्ती की आड रखकर बोले । जब कागज नहीं था तब आगम आदि शास्त्रों को ताडपत्रों पर लिखा जाने लगा। कोई कोई ताडपत्र तो इतना लम्बा होता था कि यदि उसे वाँचना होता तो पत्र को दोनों हाथों से पकडकर वाँचना संभव था। ऐसे लम्बे-लम्बे ताडपत्रों को वाँचते हुए दोनों हाथ रुक जाते थे । थूक की आशातना एव सम्पातिम जीव के मुख में पड़ने की संभावना से बचने के लिये मात्र व्याख्यान-वांचन के समय में ही मुख पर मुंहपत्ती बाँधने की प्रथा कुछ समय से शुरू हुई थी, ऐसी स्थिति न होने पर तो मुख के सामने मुखपत्ती रखकर बोलने की प्रथा थी। अब ऐसा कारण न होने से बूटेरायजी तथा शिष्य-परिवार हाथ में मुंहपत्ती मुख के सामने रखकर व्याख्यान वाँचते थे। मुनि रतनविजय आदि जब व्याख्यान करते थे, तक कुछ समय से चालु प्रथानुसार मुखपत्ती के दोनों किनारे कानों में डालकर नाक-मुंह को ढाँक कर शास्त्र वाचते थे। अन्य समय में हाथ में मुहपत्ती को मुख के आडे रख कर बोलते थे। बाई की दीक्षा के समय रतनविजयजी की द्रव्य से पूजा कराने के विरोध का प्रत्याघात यह हुआ कि उस विरोध का बदला लेने के लिये डेला के उपाश्रय, लुहार की पोल के उपाश्रय तथा विमलगच्छ के उपाश्रय के सब साधुओं ने मिलकर एक योजना बनाई । उन्होंने सोचा कि सब संवेगी साधु मुंहपत्ती के दोनों किनारों को कानों के छेदों में डालकर मुख और नाक को ढाँककर व्याख्यान वाँचते है Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [145]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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