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________________ १३८ सद्धर्मसंरक्षक वीतराग केवली सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवन्तों द्वारा प्ररूपित श्वेताम्बर जैनधर्म की सर्वत्र पताका लहराने लगी। ये साधु एक जगह डेरे डालकर पड़े नहीं रहते थे । इन के सतत सर्वत्र विहार से बहुत से क्षेत्रों को लाभ हुआ और उपकार भी बहुत हुआ। स्थिरवासी संवेगी साधुओं की शिथिलता के लिये उन साधुओं का यदि विरोध किया जाता तो उस से लाभ होना संभव नहीं था। कारण यह था कि सारे भारत में मात्र गुजरात-सौराष्ट्र में ही इस समय संवेगी साधुओं की संख्या मात्र २५-३० की थी। वे कई पीढियों से इधर ही विचरते थे। इसलिये उनका इन क्षेत्रों में प्रभाव होना स्वाभाविक था। यह पंजाबी त्रिपुटी इन क्षेत्रों के लिये एकदम अपरिचित थी। इसलिये इन्होंने यही उचित समझा कि नये साधुओं को दीक्षित करके उन को चारित्रवान, त्यागी, वैरागी तथा विद्वान बनाकर सर्वत्र विचरण कराने से, बिना विरोध से शीघ्र लाभ होना संभव है। यदि इन का विरोध किया जावेगा तो सारी शक्ति इसमें उलझ जाने से लाभ के बदले हानि अधिक संभव है। इसी निर्णय के अनुसार त्यागी, वैरागी, संयमी, चारित्रवान साधुओं की संख्या को बढावा दिया। जिनको दीक्षा दी जाती थी उन सब को गुरु के शिष्यों के रूप में अथवा गुरुभाइयों के शिष्यों के रूप में दी जाती थी। मुनि मूलचन्दजी और वृद्धिचन्दजी ने अभी तक अपना शिष्य कोई न बनाया। आगे चलकर गुरुजी की आज्ञा से और उनके अधिक जोर देने पर इन दोनों ने भी अल्प संख्या में अपने-अपने शिष्य बनाये । Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5 [138]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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