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________________ विद्याभ्यास तथा आत्मजाग्रति भावना संसार को त्याग देने की है। इस लिये मझे संन्यास लेने की आज्ञा दीजिये।" माताजी ने कहा - "बेटा ! मेरे जीवन के सहारे एक मात्र तुम ही तो हो, और साधु की भविष्यवाणी भी है कि 'तुमने साधु हो जाना है' । तुम तो घर में ही साधु हो । तुमने गृहस्थी का जंजाल तो गले डाला नहीं है और न ही डालने का विचार है। तुम्हारे पिता भी नहीं है और व कोई तुम्हारा दूसरा भाई-बन्धु ही है। घर में किसी प्रकार की कमी भी नहीं है। मेरा तुम से अपार स्नेह है। मेरे बुढापे का एक मात्र सहारा भी तुम ही हो । इसलिये जब तक मैं जीवित हूँ तब तक साधु मत होना । मेरे मरने के बाद तुम साधु हो जाना ।" बूटासिंह ने कहा- "माताजी ! मेरा मन तो घर में बिलकुल लगता नहीं ! जीवन का क्या भरोसा है ? आयु तो पानी के बुदबुदे के समान क्षणभंगुर है। अंजली में जल के समान दिन-दिन क्षीण होती जा रही है। सच्ची माता तो वही है जो सदा पुत्र का कल्याण चाहती है। जिस धर्म और जाति में मैंने जन्म लिया है वह तो धर्म पर न्यौछावर होने के लिए सदा कटिबद्ध रहने की प्रेरक हैं। जिस पंजाब की धरती में मैंने जन्म लिया है वह धरती धर्मवीरों, युद्धवीरों, महावीरों, धर्म के लिये हंसते-हंसते प्राणों की बाजी लगानेवाले महापुरुषों की जननी है। धर्म और देश की शमआ पर परवाणों की तरह जल मरनेवालों को अपनी गोदी में पालनेवाली है। वीर माताओं ने अपने लालों को देश, जाति और धर्म की बलिवेदी पर हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति देने के लिये पालने में ही लोरियां दी हैं । माताजी ! आप भी एक साहसी वीरांगना है। मैंने आपको सदा आपत्तियों, विपत्तियों और मुसीबतों Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [5]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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