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________________ १०० सद्धर्मसंरक्षक अर्थ और आशय को समझा । उपाध्याय देवचन्दजी के ग्रंथ आगमसार, ज्ञानगीता, चौबीसी तथा श्रीधर्मदासगणि-कृत उपदेशमाला इत्यादि ग्रंथों का अवलोकन किया। स्थानकवासी अवस्था में जो बत्तीस सूत्रों का आपने अभ्यास किया था, उपर्युक्त ग्रंथों के पढने के बाद फिर से उनका अवलोकन किया । आपने पाया कि स्थानकमार्गी अवस्था में इन सूत्रों के जो अर्थ आप को पढाये गये थे उनमें बडा अन्तर है। आप को दृढ निश्चय हो गया कि उपाध्याय यशोविजयजी, योगीराज आनन्दघनजी, उपाध्याय देवचन्दजी, गणि धर्मदासजी, आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, आचार्य हरिभद्रसूरि प्रभृति महापुरुषों की रचनाओं में जैनागमों के सत्य मर्मों का बडा ही सुन्दर विश्लेषण किया गया है। इन सद्गुरुओं-श्रमण पुंगवों ने भी वीतराग-शासन को गहरे पानी पैठकर उसकी वास्तविकता को परखा है और उसी वास्तविकता को अपने ग्रंथरत्नों में वर्णन किया है। आप कहते हैं - "मेरी तो अल्प बुद्धि है। मिथ्यात्वी परिवार में जन्म लिया है। मिथ्यात्वियों से दीक्षा ली और उन्हीं के द्वारा पढा । अभव्यजीव भी तो दीक्षा लेकर ग्यारह अंग पढ़ जाता है । अनेकविध अन्य धर्मग्रंथों का भी अभ्यास कर लेता है। अतीत वर्तमान काल की अपेक्षा से अनंत अभव्य जीवों ने मिथ्यादृष्टि अवस्था में जैनागम पढे हैं और अनागत काल में भी पढ़ेंगे । एवं द्रव्यलिंग धारण करके उत्कृष्ट क्रिया भी करते हैं । इक्कीसवें देवलोक (नवमें ग्रैवेयक) तक भी जाते हैं। परन्तु ग्रंथिभेद न करने के कारण सम्यक्त्व प्राप्त न करने से द्रव्यज्ञान, द्रव्यचारित्र और द्रव्यक्रिया करते हैं। ये सब जीव को चार गतियों में ही भ्रमण करानेवाले हैं, Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) 1(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [100]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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