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________________ योग्य गुरु की खोज के लिये मनोमंथन ९९ दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मों का क्षयोपशम है । एवं यदि इसके साथ पुण्यानुबन्धी पुण्य का संयोग मिले तो केवली भगवंतों द्वारा प्ररूपित धर्म की प्राप्ति होती है। यदि कोई भव्यात्मा संसार समुद्र को तरना चाहता है तो उसे सम्यग्दृष्टि मनुष्यों की संगत करनी चाहिये । उनकी सेवा करनेसे ही सन्मार्ग की प्राप्ति हो सकती है । धन्य जिनशासन है और धन्य जिनशासन का ज्ञान है । उपाध्यायजी के ग्रन्थों को पढ़ने से उनकी रचना को देखकर मुझे बडा आश्चर्य हुआ। आजतक मैंने जो ज्ञान पढा था, उपाध्यायजी के ग्रंथ पढने से वह भी सफल हुआ। बाइसटोले (स्थानकमार्गी) की प्ररूपणा में मैंने जो कुछ जिनाशा ने प्रतिकूल जाना और समझा था तथा श्रद्धा की थी, एवं तत्पश्चात् उसके विषय में जो मुझे सन्देह उत्पन्न हुए थे, उनके निवारण के लिये जो कुछ मैंने सद्ग्रन्थों के सत्य अर्थों को समझकर अपनाया था, एवं उनकी सत्यता के निर्णय के लिये किसी गीतार्थ के पास से निश्चय करने का विचार किया था; इन ग्रंथों को पढने से मेरे आगमानुसार सत्य विचारों की पुष्टि हो गई है। आज इस गीतार्थ द्वारा रचित ग्रंथों के पठन-पाठन स्वाध्याय से मुझे निर्विवाद निश्चय हो गया है कि मेरी श्रद्धा और धारणा अवश्य आगमानुकूल है। धन्य है शुद्ध प्ररूपणा करनेवाले उन श्रमण पुंगव को जो आज देह से विद्यमान न होते हुए भी मेरे जैसे तत्त्वान्वेषकों के लिये अपने ग्रंथरत्नों की रचना करके छोड गये हैं । मेरी उन महापुरुषों को त्रिकरण तीन योग की शुद्धिपूर्वक सदा बन्दना हो।" अब आपने सम्मतितर्क आदि न्यायग्रंथों का परिशीलन किया । फिर आनन्दघनजी कृत चौबीसी - बहोत्तरी पद्यों का वांचन करके Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [99]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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