SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रभु को पाए बिना तृप्ति असंभव है। असल में समस्त वासनाएं नदियों की तरह प्रभु की अंतिम वासना में - सागर की ओर दौड़ रही हैं। प्रत्येक वासना समझे जाने पर प्रभु की ओर इशारा करेगी, परम सत्ता की ओर इशारा करेगी। इसलिए वासनाएं बुरी नहीं हैं। वासनाओं को क्षुद्र से तृप्त करने की चेष्टा अज्ञान है । वासना को विराट देना होगा । क्षुद्र की तरफ जो वासनाएं दौड़ रही हैं, उन्हें विराट पर केंद्रित करना होगा, उन्हें विराट की ओर उन्मुख करना होगा । लोग कहते हैं कि मन चंचल है, लोग कहते हैं कि मन की चंचलता नहीं मिटती, लोग कहते हैं कि हम मन को ठहराने की, रोकने की कोशिश करते हैं, शांत होने की कोशिश करते हैं, लेकिन मन कहीं भागता चला जाता है ! असल में मन चंचल नहीं होता तो मनुष्य कभी धार्मिक नहीं हो सकता था। मैं फिर से कहूं, मन अगर चंचल नहीं हुआ होता तो मनुष्य कभी धार्मिक न हो सकता था, क्योंकि हमने कुछ क्षुद्र रूप से उसे पकड़ा दिया होता और मन वहीं ठहर जाता । हमने कुछ व्यर्थ उसको पकड़ा दिया होता और मन वहीं थिर हो जाता। हम कुछ भी पकड़ाएं, मन वहां ठहरता नहीं और आगे के लिए अभीप्सा से भर जाता है। असल में जब तक प्रभु को न पाए, तब तक ठहरेगा नहीं । मन की चंचलता और विचलिता इसलिए है कि मन प्रभु को पाने को उत्सुक है। उसके पूर्व कोई निधि, कोई संपत्ति उसे तृप्त नहीं कर सकती है। सौभाग्य है कि मन चंचल है। सौभाग्य है कि मन चंचल है - चंचल है, इसलिए शायद कभी परम सत्ता तक पहुंचना संभव हो सकता है। सौभाग्य है कि मन वासनाग्रस्त है, इसलिए शायद कोई दिन परम वासना को उपलब्ध हो जाए। मैंने सुना है, वहां इजिप्त में एक फकीर हुआ । फकीर अपने झोपड़े के पीछे अपने खेत में काम करने गया । फकीर की एक शिष्या बादशाह को झोपड़े के बाहर मिली। उसने बादशाह को कहा, आप थोड़ा खेत की मेड़ पर बैठ जाएं, मैं फकीर को बुला लाती हूं। बादशाह बोला, तुम बुला लाओ, मैं टहलता हूं। उसने सोचा कि शायद बादशाह बाहर बैठने में संकोच कर रहा है। वह उसे भीतर ले गई झोपड़े के और उसने बादशाह को कहा, यहां एक चटाई पड़ी है, उस पर बैठ जाएं, मैं फकीर को बुला लाती हूं। बादशाह ने कहा, बुला लाओ, मैं थोड़ा टहलता हूं। वह बहुत हैरान हुई। उसने जाकर पीछे फकीर को कहा, यह बादशाह कुछ अजीब सा आदमी मालूम हो रहा है। मैंने बहुत कहा कि बैठ जाओ। वह बोलता है, मैं टहलता हूं, तुम बुला लाओ । फकीर ने कहा, असल में वह बैठ सके, उसके योग्य स्थान हमारे पास कहां है! फकीर ने कहा, वह बैठ सके उसके योग्य बैठने का स्थान हमारे पास कहां है, इसलिए टहलता है। मैं इस कहानी को पढ़ता था और मुझे एक अदभुत बात दिखाई पड़ी, मन इसलिए चंचल है कि वह जहां बैठ सके, वह स्थान तुमने अब तक दिया नहीं। मन इसलिए चंचल है, इसलिए विचलित है कि जहां वह थिर हो सके, जहां वह तल्लीन हो सके, जहां वह विलीन हो सके, जहां वह विसर्जित हो सके, हमने वह स्थान उसे आज तक दिया नहीं। हमने कहीं खेत की मेड़ें बताई हैं, कहीं साधारण सी पतली चटाइयां बताई हैं । हमने क्षुद्र का प्रलोभन दिया है, वह विराट 91
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy