SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैंने एक साधु के संबंध में पढ़ा। एक साधु एक पहाड़ के किनारे खड़ा था। उसके कुछ मित्र उससे मिलने गए। उन्होंने रास्ते में सोचा, यह साधु उस पहाड़ पर खड़ा-खड़ा क्या करता होगा? एक व्यक्ति ने कहा, कभी-कभी उसके कुछ मित्र साथ आते हैं, वे शायद पीछे छूट गए हों, वह उन्हें देख रहा होगा, उनकी प्रतीक्षा करता होगा। दूसरे मित्रों ने कहा, हमें विश्वास नहीं आता कि वह किसी की प्रतीक्षा कर रहा है। उसे देख कर प्रतीक्षा का बोध नहीं होता। किसी ने कहा, कभी-कभी उसकी गाय खो जाती है। वह अपनी गाय को शायद पहाड़ी पर खड़ा होकर खोजता हो। तीसरे मित्र ने कहा, ऐसा भी मालूम नहीं पड़ता। तीसरे ने कहा, ऐसा प्रतीत होता है, शायद वह प्रभु का चिंतन और ध्यान कर रहा है। वे निर्णय नहीं कर सके। उन्होंने कहा, हम चलें और पूछ लें। वे गए और उन्होंने उस साधु को पूछा। उससे पूछा, आपका कोई मित्र आया है, जो पीछे छूट गया है, और आप प्रतीक्षा करते हैं? उस साधु ने कहा, नहीं। उन्होंने पूछा, आपकी गाय खो गई है क्या, आप पहाड़ी में देख रहे हैं? उस साधु ने कहा, नहीं। उन्होंने पूछा, क्या आप प्रभु का चिंतन कर रहे हैं? प्रभु की प्रार्थना कर रहे हैं? उस साधु ने कहा, नहीं। वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा, फिर आप क्या कर रहे हैं? उस साधु ने कहा, मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। सब करना छोड़ कर खड़ा हुआ हूं। महावीर ने इस अवस्था को सामायिक कहा है, इसको ध्यान कहा है। जब मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं और सब छोड़ कर चुपचाप रह गया हूं। उस मौन की अवस्था में-जब मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं, मेरी इंद्रियों के सारे व्यापार शून्य हो गए हैं, जब मेरी सारी इंद्रियों की चहलपहल बंद हो गई है, जब मेरे चित्त की सारी दौड़ निरुद्ध हो गई है-उस घड़ी में, उस क्षण में मुझे स्वयं का दर्शन होता है। सत्य को जानना हो तो चित्त-निरोध के माध्यम से स्वयं में प्रविष्ट होना होता है। और जो व्यक्ति स्वयं में प्रविष्ट हो जाता है, उसे अदभुत अनुभव होता है। उसे अनुभव होता है पहला : उसे दिखाई पड़ता है, जो मेरे भीतर है, वह सबके भीतर है। और जैसे ही उसे यह दिखाई पड़ता है, जो मेरे भीतर है, वह सबके भीतर है, उसका जीवन प्रेम से आपूरित हो जाता है, उसके जीवन में अहिंसा आ जाती है। जैसे ही उसे दिखाई पड़ता है कि जो मेरे भीतर है, उसे यह भी दिखाई पड़ता है, वह जो भीतर है, उसकी कोई मृत्यु नहीं है। उसका सारा भय विलीन हो जाता है। भय के साथ परिग्रह चला जाता है। क्योंकि परिग्रह वे करते हैं, जो भयभीत हैं। परिग्रह मूल बीमारी नहीं है, मूल बीमारी भय है। जो जितना भयभीत है, उतना परिग्रह करता है। कंजूस के ऊपर दया करो, वह भयभीत है, इसलिए परिग्रह कर रहा है। जो जितना अभय होता है, उतनी ही सुरक्षा का विचार छोड़ देता है। जो जितना अभय होता है, उतना परिग्रह छोड़ देता है। मोहम्मद जिस रात मरने को थे...। उनका रोज का नियम था, सांझ को-लोग जो उन्हें भेंट कर जाते-सांझ को खाने के बाद जो बचता, वे बांट देते। एक भी चावल का दाना घर में न रखते। जिस रात वह मरने को थे, बीमार थे, और वैद्यों ने कहा, मर जाएंगे, उनकी पत्नी को डर हुआ। उसने पांच दीनार, पांच रुपये बचा कर रख लिए कि शायद रात, असमय में बीमारी बढ़ जाए और वैद्य को बुलाना पड़े।
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy