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________________ वह एक-दो दिन चिल्लाता रहा कि मुझे क्यों बंद कर रहे हैं? मतलब क्या है आपका ? मैंने कौनसा कसूर किया ? कोई उत्तर उसे दिए नहीं गए। उसे खाना दिया गया, उसने खाना फेंक दिया। उसे पानी दिया गया, उसने पानी नहीं लिया। वह चिल्लाता रहा, दो दिन, ढाई दिन, फिर थक गया, फिर पानी पी लिया। फिर और थक गया, फिर खाना खा लिया। फिर और थक गया, फिर चिल्लाना भी बंद कर दिया। फिर वह बैठा रहता था उस कमरे में और उसका निरीक्षण वह बादशाह करता था खिड़की से । दिन पर दिन बीतते चले गए। वह फिर अकेले बैठे-बैठे अपने से बातें करने लगा, जोर से बातें करने लगा ! तो वह बातें करने लगा, अपनी पत्नी से भी बातें करने लगा, अपने बच्चों से खेलने लगा वहां ! उस कमरे में न पत्नी है, न बच्चे हैं। महीना पूरा हुआ, उसकी जांच की गई, वह आदमी पागल हो चुका था। उसे अच्छा खाना दिया जाता था, कपड़े दिए जाते थे, पहनने को दिया जाता था, पानी दिया जाता था, सब सुविधा थी, असुविधा कोई भी न थी, लेकिन अपने से भागने का कोई उपाय नहीं दिया गया। नंगी दीवारें थीं, न कोई किताब थी, न कोई अखबार था; न कोई रेडियो, न कोई सिनेमा, न कोई मित्र न कोई और रास्ते जहां वह अपने को भुलाए रखे । चौबीस घंटे उसे अपने को देखना था। वहां सिवाय पशु के और कोई भी नहीं था। वहां सिवाय गलत, व्यर्थ के विचारों के और कोई भी नहीं था । वह विक्षिप्त हो गया। अगर आप अपने मन को देखें, तो सिवाय पागल होने के और कुछ भी नहीं होंगे, वहां पागल मौजूद है। तो महावीर कहते हैं, वहां परमात्मा है। तो फिर कहां होगा? शरीर में परमात्मा हो नहीं सकता। यह मन है, इसमें परमात्मा नहीं है। महावीर कहते हैं, वह परमात्मा जरूर है। लेकिन शरीर को भी, उस तक पहुंचने के लिए, पार करना होता है । और मन को भी, उस तक पहुंचने के लिए, पार करना होता है । शरीर की पर्त के पीछे हटो, मन है; मन की पर्त के पीछे भी हट जाओ तो वह है, जिसे परमात्मा उन्होंने कहा है । हम अपने मकान के, जिसके तीन खंड हैं - मेरी आत्मा, मेरा मन, मेरा शरीर - हम दो ही खंडों में जीवन गुजार देते हैं, तीसरे खंड से अपरिचित रह जाते हैं ! हम उसकी दहलान में ही घूम-घूम कर जीवन व्यतीत कर देते हैं, उस आंतरिक कक्ष से अपरिचित रह जाते हैं, जहां हमारा वास्तविक होना है ! और उससे अपरिचित व्यक्ति निश्चित दुख में पड़ा रह जाता है, निश्चित पीड़ा में पड़ा रह जाता है, निश्चित सारे जीवन दुख को मिटाने की कोशिश करता है, लेकिन दुख को नहीं मिटा सकता। जीवन भर सुख को पाने की चेष्टा करता है, लेकिन सुख को नहीं पा सकता। क्योंकि दुख एक ही बात के कारण है और वह यह कि वह अपने केंद्र से च्युत है। अपने केंद्र पर नहीं है, यही उसका दुख है । वह सोचता है कि वस्तुओं के न होने से वह जो दुख है। वह दुख नहीं है, क्योंकि कितनी ही वस्तुएं मिल जाएं, सुख नहीं आता। इस जमीन पर ऐसे लोग हुए हैं, जिनके पास सब था। खुद महावीर के पास सब था, लेकिन उस सब ने उन्हें सुख नहीं दिया। आज तक एक भी आदमी मनुष्य के इतिहास में नहीं हुआ, जिसने यह कहा हो कि मैंने सब पा लिया और मुझे सुख मिल गया हो । सब पा लिया, तब भी दुख उतना ही था, जब कि सब नहीं पाया था । दुख में अंतर नहीं पड़ता है। जो पा 39
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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