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________________ इसके पैर पड़ो। अगर मैं वस्त्र छोड़ कर नग्न खड़ा हो जाऊं, तो आप मुझे नमस्कार करोगे, क्योंकि आपकी वस्त्र छोड़ने की हिम्मत नहीं है। तो जब आप किसी को आदर देते हो, वह आदर कम है, वह आपका अपमान ज्यादा है और आपके भीतर की असलियत का सबूत ज्यादा है। जो कामी है, वह ब्रह्मचर्य वाले को बहुत आदर देगा। जो भोगी है, वह त्यागी को आदर देगा। जो परिग्रही है, वह अपरिग्रही को आदर देगा। और इसलिए जो धोखेबाज हैं, वे अपरिग्रह साध लेंगे और आदर ले लेंगे। जो धोखेबाज हैं, वे ब्रह्मचर्य साध लेंगे, और आदर ले लेंगे, और अहंकार की तृप्ति कर लेंगे । उस साधु ने कहा, मैं उसी वक्त समझ गया था मामला खतम हो गया। लेकिन हमने सोचा तुम्हीं कहो, तब बात करेंगे। उस राजा ने कहा, मुझे तो रात नींद नहीं आई । मैं तो बहुत सोचता रहा, यह कैसा साधु है ! और रात मुझे यह खयाल आता रहा कि अब मुझमें और आपमें क्या फर्क है! आप भी सोए हैं वहीं, मैं भी वहीं । वही सुविधा मुझे है, वही सुविधा आपको है। वह फकीर बोला, मेरे साथ गांव के बाहर चलो, उत्तर रास्ते में देंगे। वे गांव के बाहर गए और जहां नदी पड़ती थी, गांव समाप्त होता था, राजा ने कहा, अब बताएं। वह फकीर बोला, थोड़ा और आगे । वह जब भी पूछता, बताएं। वह कहता, थोड़ा और आगे। दोपहर हो गई, राजा ने कहा, क्या पागलपन है! उत्तर देना हो दें - और आगे से क्या मतलब है? वह फकीर बोला, और आगे ही मेरा उत्तर है। अब हम लौटेंगे नहीं। तुम भी मेरे साथ चलते हो? वह राजा बोला, मैं कैसे जा सकता हूं ! मेरा पीछे महल, मेरी रानी, मेरे बच्चे, मेरा राज्य! वह फकीर बोला, अगर फर्क दिखे तो देख लेना। फर्क है - हम जाते हैं, तुम नहीं जा सकते। हम जाते हैं, हमारा पीछे कुछ भी नहीं है। हम उस बिस्तर पर सोए थे, सो लिए! बिस्तर हमारा पीछे नहीं रह गया है कि जिस पर हमें फिर सोना है । कल जब दरख्त के नीचे सोएंगे तो फिर सो लेंगे । और दरख्त से कुछ मोह नहीं बंध जाएगा। यह है अस्पर्श योग । चीजें छुएं न, बस यही जीवन-साधना है। चीजें छू लें, तो परिग्रह हो जाता है। चीजें न छुएं तो अपरिग्रह हो जाता है। असली अपरिग्रह, चीजें न छुएं, यह बोध साध लेना है। चीजें छोड़ कर भाग जाना, न भाग जाना गौण बात है। उसका कोई मूल्य नहीं है । उनके विवेक को जो अपने भीतर स्थापित करेगा, वह धीरे-धीरे इस जीवन स्थिति को उपलब्ध हो जाता है। तब वह जल में - जल में कमल के पत्तों की भांति जीता है। ईश्वर करे, वैसी स्थिति आपको उपलब्ध हो। और अगर आकांक्षा हो वैसी स्थिति की, तो महावीर ने जिसे विवेक कहा, उसे साधें । आकांक्षा हो, तो सतत इस बात का अनुस्मरण साधें कि मैं देह नहीं हूं। तो धीरे-धीरे, जैसे एक-एक बूंद गिर कर सागर भर जाता है, जैसे एक-एक बूंद गिर कर सागर भर जाता है और एक-एक किरण गिर कर सारे जगत को आलोक से भर देती है, वैसे ही एक-एक क्षण अनुस्मृति का साधते - साधते एक दिन विवेक के सूर्य का जन्म होता है और मनुष्य परम सत्य को, परम शांति को, आनंद को उपलब्ध होता है। प्रभु करे, वैसी आकांक्षा आपमें उत्पन्न हो, वैसा संकल्प उत्पन्न हो, वैसा श्रम करने का साहस उत्पन्न हो । और जो जीवन, जिसको पाने के लिए है, वह पाना आपको संभव हो जाए। T 30
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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