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________________ ही इसको सम्हाले रहते हैं। दोनों इस भ्रम को पोषण देते रहते हैं। और तब यह भ्रम घना होता चला जाता है और यही भ्रम जन्म-जन्मांतरों का कारण बन जाता है। दो दिशाएं हैं मनुष्य के सामने एक है भ्रम-विसर्जन की और एक है भ्रम-पोषण की। जो महावीर के मार्ग में उत्सुक हों, उन्हें भ्रम-विसर्जन पर ध्यान देना होगा। उन्हें ध्यान रखना होगा कि वे जो भी करें, जो भी बोलें, जो भी सोचें, उसमें यह ध्यान रखना होगा : उनकी क्रिया, उनका विचार, उनकी वाणी इस भ्रम को बढ़ाने में सहयोगी तो नहीं हो रही है। वे जो बोल रहे हैं, जो सोच रहे हैं, जो कर रहे हैं, उससे कहीं उनका यह अज्ञान घना तो नहीं हो रहा है कि मैं शरीर हूं! अगर यह घना हो रहा है, तो उनके कर्म और उनके विचार पाप हैं। अगर यह क्षीण हो रहा है, तो उनके कर्म और उनके विचार पुण्य हैं। पुण्य और पाप की इसके सिवाय और कोई मैं परिभाषा नहीं देखता हूं। जो आपके भीतर इस भ्रम को तोड़ दे कि मैं शरीर हूं, वैसी क्रिया, वैसा विचार पुण्य है, सदकर्म है। और वैसी क्रिया, वैसा विचार, जो इस भ्रम को घना कर दे कि मैं शरीर हूं, पाप है। कैसे स्मरण रखेंगे? कैसे यह तप चलेगा? कैसे हम भूलेंगे यह बात कि हम शरीर हैं और जानेंगे यह सत्य कि हम आत्मा हैं? मैंने कहा, सतत अनुस्मरण से। इसे महावीर ने विवेक कहा है। महावीर ने कहा है, साधु को विवेक से चलना चाहिए। तो कोई होंगे जो समझते होंगे कि विवेक का इतना ही अर्थ है कि उसको देख कर चलना चाहिए कि पैर के नीचे कीड़े-मकोड़े तो नहीं आ गए! महावीर ने कहा है, साधु को विवेक से लेटना चाहिए। तो कुछ होंगे जो सोचेंगे कि करवट बदलते वक्त ध्यान रखना चाहिए कि नीचे कोई कीड़ा-मकोड़ा तो नहीं आ गया। महावीर ने कहा है, साधु को विवेक से भोजन करना चाहिए। तो कुछ होंगे जो सोचेंगे कि पानी छना हुआ है या गैर-छना हुआ है। ये विवेक के अत्यंत क्षुद्र अर्थ हैं। विवेक का गहरा और महत्वपूर्ण अर्थ दूसरा है, वास्तविक सारभूत अर्थ दूसरा है। विवेक का अर्थ है, चलते वक्त साधु को जानना चाहिए, मैं नहीं चल रहा हूं। क्षण भर को भी स्खलन न हो इस वृत्ति में, क्षण भर को भी यह भ्रम न आ जाए कि मैं चल रहा हूं। स्मरण होना चाहिए, देह चलती है, मैं देखता हूं। वासना चलती है, मैं देखता हूं। मैं साक्षी हूं। मन चलता है, मैं द्रष्टा हूं। शरीर चलता है, मन चलता है, मैं नहीं चलता, मैं थिर हूं। सारे चलन के बीच, सारे परिवर्तन के बीच, सारी गति के बीच, वह जो थिर बिंदु है हमारे भीतर, वह जिसे गीता में कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ कहा, वह जो प्रज्ञा है हमारे भीतर ठहरी हुई, उसका बोध रहना चाहिए कि मैं रुका हूं। चलते समय जिसे पता होगा कि मैं रुका हूं, भोजन करते वक्त जिसे पता होगा कि मैंने कभी भोजन नहीं लिया, वस्त्र पहनते वक्त जिसे पता है कि मुझे कोई वस्त्र ढांक नहीं सकते, जब दुख उस पर आएगा, उसे पता होगा, ये दुख मुझ पर नहीं आए। जब सुख उस पर आएगा, उसे पता होगा, ये सुख मुझ पर नहीं आए। जब मृत्यु उसके द्वारदरवाजा खटखटाएगी, तब वह जानेगा, यह मृत्यु मेरी नहीं है, यह बुलावा मेरा नहीं है। ऐसे विवेक को जीवन की प्रत्येक क्रिया में पिरो देना, जीवन की प्रत्येक क्रिया में, छोटी और बड़ी क्रिया में विवेक को गूंथ देना, इसे महावीर ने साधक का आधारभूत कर्तव्य कहा है। जो इसे करता हो, वह पहली सीढ़ी पर कदम रखता है।
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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