SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सांप्रदायिक मतांधता का विरोध किया और धर्म के सनातन शुद्ध रूप को जन- हृदय में पुनः स्थापित करने का भगीरथ प्रयास किया । धर्म वस्तुतः क्या है, इसे उन्होंने अपने जीवन की ज्योति से देश को समझाया। वे धर्म के कोरे प्रचारक नहीं थे। वे स्वयं धर्म थे । धर्म उनका जीवन था और उनकी मान्यता थी कि धर्म को शब्दों से नहीं, अनुभूति और आचरण से ही प्रकट किया जा सकता है। समाज को धर्म के मूल स्वरूप की ओर ले जाने का उनका प्रयास निश्चय ही रूढ़िवादी पुरोहितों और धर्म के ठेकेदारों को प्रिय नहीं हो सकता था, और फलस्वरूप उन्हें अनेक विधि कष्ट और यातनाएं दी गईं, पर वे असली सोना थे और हर अग्नि परीक्षा उनकी आत्म-ज्योति को और प्रखर करने का एक अवसर बनती गई । कालात्मा उनके साथ थी । सत्य का समर्थन उन्हें प्राप्त था, और इसलिए हर तरह की पीड़ा सह कर भी वे अडिग बने रहे, क्योंकि वे जानते थे कि सत्य कभी पराजित नहीं होता है। और सत्य पराजित नहीं हुआ। उनके जीवन का प्रकाश और उनके सदाचरण की सुगंध दूर-दूर तक पहुंची और सत्य के खोजियों के लिए वे शीघ्र ही एक तीर्थ बन गए। उनके करीब आकर लोगों ने ईश्वर का सान्निध्य अनुभव किया और उनकी अमृतवाणी सुन कर लाखों लोगों की आत्मा की प्यास बुझी । उनके अनुयायियों में सभी धर्मों, संप्रदायों और वर्गों के लोग सम्मिलित हुए। हिंदू, मुसलमान, जैन, हरिजन, बौद्ध – कोई भी उनके लिए पराया न था । उन्होंने कहा : सारे भेद शरीर - बुद्धि से ही उपजते हैं और शरीर-बुद्धि अज्ञान है। आत्मा का विश्वासी सबमें एक को ही देखता है, कारण, भेद नहीं, अभेद ही उसके लिए सत्य है । इस तरह संत तारण तरण भारत में असांप्रदायिक जीवन-दृष्टि के अगुआ विचारकों में से एक थे । उनका जो संघ बना उसमें सभी जातियों के लोग सम्मिलित हुए थे जो कि षटसंघ रूप में आज भी विद्यमान है। इस पंथ के अनुयायियों की संख्या 40,000 है। संत तारण तरण ने धर्म के नाम पर प्रचलित व्यर्थ के क्रियाकांडों का विरोध किया और कहा कि धर्म को पाना है तो बाह्य क्रियाओं में भटकना व्यर्थ है। धर्म की प्राप्ति भीतर ही हो सकती है। तथाकथित धार्मिक विधि-विधानों, मूर्ति - पूजा और बाह्य औपचारिकताओं के स्थान पर वे आत्मा के अंतरस्थ धर्म को स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने कहा है : 'मैं शुद्ध आत्मा को पूजता हूं, यही वंदना है और यही मुक्ति का मार्ग है । ' संत तारण तरण के कुल चौदह ग्रंथ मिलते हैं जिनकी एक-एक पंक्ति में आत्मानुभूति और आत्मानंद का अमृत झरता सा लगता है । उनकी समाधिस्थ अनुभूति से उठे ये स्वर बहुमूल्य हैं । विश्व के श्रेष्ठतम रहस्यात्मक संत-साहित्य में उनकी गणना की जानी चाहिए । उनकी वाणी में डूब कर अनायास ही उपनिषद के द्रष्टा ऋषियों, बंगाल के बाउलों और ईरान के सूफी संत कवियों का स्मरण हो आता है। संत तारण तरण का समूचा साहित्य दो भागों में बांटा जा सकता है: एक में शास्त्रीय ज्ञान का विवेचन है और दूसरे में शुद्ध आत्मानुभूति का। इन ग्रंथों में श्लोक और सूत्र हैं। उनके साहित्य का दूसरा वर्ग ही ज्यादा मूल्यवान है क्योंकि उन्हें शास्त्रीय ज्ञान और तर्कवादों में कोई आस्था नहीं थी । वे कहते थे कि बुद्धि और उसके विश्लेषण से आत्मा को नहीं पाया जा सकता है। उनकी उपलब्धि तो अनुभूति के मार्ग से ही हो सकती है। विश्व के समग्र 1 209
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy