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________________ उनसे मिल कर लौटते समय मैं राह में सोचता आया था कि जो त्याग किया गया हो, वह अहंकार के बाहर नहीं ले जाता है। एक दिन वे इस अहंकार से भरे रहे होंगे कि उनके पास लाखों हैं, आज वे इससे भरे हैं कि उन्होंने लाखों पर लात मार दी है। त्याग आए तो सम्यक, किया जाए तो असम्यक हो जाता है। और यह धर्म की समस्त साधना के संबंध में सत्य है । अहंकार के मार्ग बहुत सूक्ष्म हैं। वह बहुत रहस्यमय है और उन जगहों पर भी वह उपस्थित हो जाता है, जहां उसके होने की कल्पना नहीं होती है और जहां ऊपर से उसके दर्शन बिलकुल भी नहीं होते हैं । उसके स्थूल रूप तो दिखाई पड़ते हैं, इसलिए वे उतने घातक भी नहीं हैं। पर सूक्ष्म रूप बहुत घातक हैं, क्योंकि वे साधारणतः दिखाई नहीं पड़ते हैं, इसलिए उनसे बहुत आत्मवंचना होती है। धार्मिक, त्यागी, ज्ञानी, अहिंसक आदि होने का अहंकार वैसा ही है । नीति, मारेलिटी अध्यात्म, स्प्रिचुएलिटी की स्फुरणा है । और जो तथाकथित आरोपित नैतिकता के अहंकार से परितृप्त हो जाते हैं, वे उस अलौकिक अध्यात्म - स्फुरणाजन्य नीति से वंचित रह जाते हैं जहां अहंकार की छाया भी प्रवेश नहीं कर पाती है। सूर्य प्रकाश में जैसे ओस-कण विलीन हो जाते हैं, ऐसे ही आत्मानुभूति के प्रकाश में अहंकार वाष्पीभूत हो जाता है। वह अज्ञान और अंधकार का प्रवासी है। उसके प्राण, श्वास-प्रश्वास उसी से निर्मित हैं । अज्ञान के अभाव में उसका जीवन संभव नहीं है। अज्ञान अहंकार है। ज्ञान अहंकार- मुक्ति है। अज्ञान आचरण अहंचर्य है। ज्ञान आचरण ब्रह्मचर्य है। अहंचर्य हिंसा है । ब्रह्मचर्य अहिंसा है। मैं- भाव हिंसा में ले जाता है। वह भाव आक्रामक, एग्रेसिव है । समस्त हिंसा उसके ही केंद्र पर आवर्तित होती है। अज्ञान में सत्ता पर मैं आरोपित हो जाता है। आत्मा में, जो पतित हो जाती है, वह जो वस्तुतः नहीं है उसकी प्रतीति होने लगती है। यह मैं विश्वसत्ता पृथक और विरोध में खड़ा हो जाता है । फिर उसे प्रतिक्षण स्वरक्षा में संलग्न होना पड़ता है। मिटने का एक सतत भय उसे घेरे रहता है । एक असुरक्षा, इनसिक्योरिटी चौबीस घंटे उसके साथ बनी रहती है। वह कागज की नाव है और किसी भी क्षण उसका डूबना हो सकता है। वह ताशों का घर है और हवा का कोई भी झोंका उसे नष्ट कर सकता है। यह भय, फियर हिंसा का जन्म है। हिंसा अपने मूल मानसिक रूप में भय ही है। यह भय आत्मरक्षा से आक्रमण तक विकसित हो सकता है। वस्तुतः तो आक्रमण भी आत्मरक्षण का ही रूप है। शायद मैक्यावेली ने कहा है कि आक्रमण आत्मरक्षा का सर्वोत्तम उपाय है । भय यदि आत्मरक्षण तक ही सीमित रहे, तो अंततः कायरता पैदा हो जाती है । वही भय आक्रामक होकर वीरता जैसा दिखाई पड़ता है । पर कायरता हो या तथाकथित वीरता, भय दोनों में ही उपस्थित रहता है, और वही दोनों का चालक है। जिनके हाथ में तलवार दिखाई देती है वे, और वे भी जो पूंछ दबा कर कहीं छिप रहते हैं, दोनों ही भय से संचालित हैं। यह जानना आवश्यक है कि भय क्या है, क्योंकि जो भयग्रस्त हैं, कभी अहिंसक नहीं हो सकते हैं। और यदि भयग्रस्त व्यक्ति अहिंसक होने की चेष्टा करे, तो वह केवल कायर हो पाता है, अहिंसक नहीं । इतिहास और अनुभव इसके बहुत और सबल प्रमाण देता है। अहिंसा 204
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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