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________________ वस्तुतः परिधि कभी केंद्र को नहीं जीत सकती है, आचरण कभी अंतस को नहीं जीत सकता है। परिवर्तन का प्रवाह विपरीत होता है। वह परिधि से केंद्र की ओर नहीं, केंद्र से परिधि की ओर होता है। अंतस क्रांति से गुजरता है और आचरण में परिवर्तन होता है। चेष्टा से लाया हुआ आचरण कभी भी सहज नहीं हो सकता है। वह आदत, हैबिट से ज्यादा नहीं है। मूल्य भी उसका उससे ज्यादा नहीं है। वह स्वभाव तो कभी बन ही नहीं सकता है। आदत कभी भी स्वभाव नहीं है। स्वभाव है ही वह, जिसे बनाने का कोई प्रश्न नहीं है। आदत सृष्ट है, स्वभाव असृष्ट है। एक को निर्माण और एक को अनावरण करना होता है। ___ मित्र, स्वभाव की उत्पत्ति नहीं होती, वह तो है। केवल उसे जानना है, केवल उसे उघाड़ना है। जैसे कोई सोता हो और उसे उठाना पड़े, ऐसा ही उसके साथ भी करना होता है। मैं एक कुआं खुदता देखता था, तब मुझे स्मरण आया था कि स्वभाव को भी ऐसे ही खोदना होता है। जल-स्रोत तो मौजूद थे, पर आवृत थे। वे बहने और फूट पड़ने को भी उत्सुक थे, पर अवरुद्ध थे। और जब अवरोध देने वाली मिट्टी की परतें दूर हो गई थीं, तो वे कैसे स्फुरित हो उठे थे! स्वभाव के साथ भी कुछ ऐसा ही है। बहने, विकसित और पुष्पित होने की वहां भी चिर प्रतीक्षा है। थोड़ा सा खोदना है, और जीवन एक बिलकुल नए आयाम पर गतिमय हो जाता है। कल तक जो साध कर भी साध्य नहीं था, वह सहज हो जाता है। कल तक जो छोडे-छोडे भी नहीं छटता था. वह अब खोज कर भी मिलता नहीं है। जीवन-आयाम बदलने की इस कीमिया, अल्केमी को जानना ही धर्म है। अल्केमिस्ट इसकी ही खोज में थे। वे एक ऐसे रसायन की तलाश में थे, जिससे लोहा स्वर्ण में बदल सके। जीवन जैसा पाया जाता है, वह लोहा है; जीवन जैसा हो सकता है, वह स्वर्ण है। और यदि बहुत ठीक से देखें तो लोहा केवल आवरण है वस्त्र है स्वर्ण नित्य भीतर उपस्थित है। सद-आचार अहिंसा स्वभाव का उदघाटन है, स्वरूप का अनावरण है। महावीर ने उसे इसी अर्थ में लिया है। जो स्वयं में स्थित है, वही अहिंसा को उपलब्ध है। जो आचार केवल आचरण है, स्वभाव की सहज स्फुरणा, स्पांटेनियस एक्सप्रेशन नहीं, वह ब्रह्म में नहीं और गहन अहं में ले जाता है। उससे अहंकार, ईगो और परिपुष्ट होता है। वह उस दिशा से भी भरता और बलिष्ठ होता है। तथाकथित साधु और संन्यासी में जो प्रगाढ़ दंभ परिलक्षित होता है, वह अनायास ही नहीं है। उसके मूल में अतिचेष्टा से आरोपित आचरण और प्रयत्न साध्य चरित्र है। यह कमाया हुआ चरित्र वैसे ही अहंकार-पूर्ति का साधन बन जाता है, जैसे कमाया हुआ धन बन जाता है। चरित्र भी परिग्रह और संपत्ति का रूप ले लेता है। असल में जो भी कमाया और अर्जित किया जाता है, वह मैं को भरता है, क्योंकि अर्जन उसकी ही विजय का रूप ले लेता है। कैसा आश्चर्य है कि अर्जित त्याग भी परिग्रह हो जाता है और अर्जित विनय में भी अहंकार उपस्थित होता है! क्या तथाकथित विनय में झुके सिर के पीछे अक्सर दंभ में उठे सिर के दर्शन नहीं हो जाते हैं? ___ एक बार एक साधु से मिलना हुआ था। उन्होंने मुझ से कहा था, मैंने लाखों की संपत्ति पर लात मार दी है। मैं निश्चय ही सुन कर हैरान हो गया था। फिर उनसे पूछा था, यह लात आपने कब मारी? वे बहुत गौरव से बोले थे, कोई तीस वर्ष हुए। 203
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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