SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ फिकर नहीं करते, बल्कि शायद आनंद पाने में दूसरों को दुख देने को भी सीढ़ियां बना लेते हैं। महावीर कहते हैं, ऐसा व्यक्ति कभी आनंद को उपलब्ध नहीं होगा। ऐसा व्यक्ति कितनी ही आनंद की खोज करे, वह जितना दुख दूसरों में व्याप्त करता रहेगा, उतना ही गहरा दुख उसके भीतर प्रविष्ट होता चला जाएगा। इसे महावीर कर्म-बंध कहते हैं : जो दुख देगा, वह दुख पाने के कर्म बांध लेगा। लेकिन उनकी बुनियादी शिक्षा यह नहीं है कि दूसरे को दुख देने से बचो। उनकी बुनियादी शिक्षा यह है कि उस जड़ को काट दो, जिसके कारण दूसरों को दुख देने की मजबूरी ऊपर पड़ती है। और वह जड़ मैं की है। धर्म मैं की मृत्यु चाहता है। जिसका मैं मर जाता है, वही केवल धार्मिक होता है। इसलिए मैंने कहा कि जन्म से धर्म का संबंध नहीं, मृत्यु से धर्म का संबंध है। जब हमारा मैं मर जाएगा, तो हम धर्म से संबंधित होंगे। इसलिए जो धर्म में जाने को उत्सुक हों, उन्हें मरने को तैयार होना चाहिए। मरने से मेरा अर्थ समझे? मरने को तैयार होना चाहिए-उन्हें उस मैं को, जिसे हम सजाते और संवारते हैं, जिसे हम जीवन भर चेष्टा करते हैं परिपुष्ट करने की, उसे छोड़ने का साहस चाहिए। इसलिए धर्म इस जगत में सबसे बड़ा दुस्साहस है। हम क्या देखते हैं लेकिन? हम देखते हैं बूढ़े, मरणासन्न धार्मिक होने में उत्सुक होते हैं! धार्मिक होना हो तो अंतिम दिन की प्रतीक्षा न करें। धार्मिक होना हो तो जब शक्तियां परिपूर्ण हों और जब जीवन ऊर्जा से भरा हो और जब कुछ दुस्साहस करने का सामर्थ्य हो, तब कूद पड़ें। इसमें भी महावीर ने क्रांति की। पुराना धर्म यह कहता था कि धर्म अंतिम चरण है जीवन का। चार आश्रमों में विभक्त है जीवन। तीन आश्रम व्यतीत करो, चतुर्थ आश्रम में जब सब जीवन विलीन हो जाए, तब वृद्धावस्था में धर्म की साधना करो! महावीर ने इसमें भी क्रांति की है। और महावीर ने कहा कि धर्म की साधना करनी है तो जब युवा हो, जब सारा बल और पराक्रम साथ है, सारा वीर्य और ओज साथ है, तब संलग्न हो जाओ। धर्म बुढ़ापे की दवा नहीं है, धर्म युवा होने का दुस्साहस है। इसलिए स्मरण रखें, शक्ति के क्षीण होने की प्रतीक्षा न करें। धर्म मरतों का सांत्वना और आश्वासन नहीं है, धर्म जीवितों की दुस्साहसपूर्ण साधना है। इसलिए जब शक्ति और ऊर्जा मालूम हो, जितनी मालूम हो, उसके क्षीण होने की प्रतीक्षा न करें, उसे संलग्न करें, उसे उपाय में लगाएं, उसे संयोजित करें और जीवन को अनुशासित बनाएं, तो संभावना हो सकती है कि एक दिन क्रमशः अपने मैं-भाव पर चोट करते-करते मैं विलीन हो जाए। सतत जागरूक रह कर, अपनी समस्त क्रियाओं में यह बोध रखते हुए कि मेरा मैं तो काम नहीं कर रहा है? मेरा अहंकार तो काम नहीं कर रहा है? मेरी अहंता तो पुष्ट नहीं हो रही है? जो ऐसी विवेक और अप्रमत्तता को साधता है, वह धीरे-धीरे मैं की बदलियों को मुक्त, उनको विसर्जित करने में समर्थ हो जाता है। और तब उसे उस सूरज का बोध होता है, जिसे हम धर्म कहते हैं। धर्म इसलिए ग्रंथों में नहीं है। मैं के पीछे छिपा है, ग्रंथों के शब्दों के पीछे 13
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy