SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैसे ही उसे यह भाव आया, गुरु की हंसी विलीन हो गई और आंखें नीचे की नीचे झुक गईं। तीन वर्ष और बीते, उसने किसी को पूछा कि यह क्या हुआ? वे मुस्कुराए थे, फिर मुस्कुराहट वापस चली गई। जिससे पूछा उसने कहा कि उनकी मुस्कुराहट से अगर तुम्हारे भीतर कुछ भी हआ हो, अगर आश्चर्य भी पैदा हआ हो, अगर जिज्ञासा भी आई हो, तब भी तुम अभी बाहर की बातों से कंपित होते हो। अभी बाहर की बातें तुम्हारे भीतर स्पंदन पैदा करती हैं। इसलिए गुरु ने डर कर अपनी मुस्कुराहट वापस ले ली होगी। वे तो तब मुस्कुराएंगे, जब उनकी मुस्कुराहट तुम्हारे भीतर कोई फर्क पैदा न करे। ___ ऐसे तीन वर्ष और बीते। और तीन वर्ष बाद उसके गुरु ने उसे रास्ते में पकड़ा और गले लगाया और उसे पास बिठाया। और उसके गुरु ने कहा, आज मैं प्रसन्न हूं। आज जब मैंने तुम्हें गले लगाया तो तुमने ऐसे देखा कि मैं शायद किसी और को गले लगा रहा हूं। उसके गुरु ने कहा कि आज मैं प्रसन्न हूं। जब मैंने तुम्हें गले लगाया तो तुमने मुझे ऐसे देखा, जैसे मैं किसी और को गले लगा रहा हूं। और अभी जब मैं तुमसे बातें कर रहा हूं, तो तुम ऐसे सुन रहे हो, जैसे मैं किसी और से बातें कर रहा हूं। अब तुम हवा-पानी की तरह हो गए। अब तुम्हारे भीतर जो मैं की कठिनाई थी. काठिन्य था. वह विलीन हो गया। अब तम्हारे भीतर मैं का पत्थर चला गया। अब तुम तरल हो गए, अब तुम सरल हो गए। अब प्रभ का तुम्हें साक्षात निकट है। जो मैं की कठिनता को छोड़ देते हैं, वे ही साधुता को और सरलता को उपलब्ध होते हैं। महावीर ने उस मैं-शून्य सरलता को ही अहिंसा कहा है। महावीर का अहिंसा से प्रयोजन दूसरे को दुख देना, न देना नहीं है। महावीर की बात बहुत गहरी है। वे यह कहते हैं, जिसके भीतर मैं-भाव है, वह चाहे या न चाहे, उससे दूसरों को दुख मिलेगा। वह न भी हिंसा करे, तो भी उससे हिंसा होगी। उसकी वाणी में, उसके चलने में, उसके उठने में हिंसा होगी। उसके भाव में, उसके विचार में हिंसा होगी, उसके स्वप्नों में हिंसा होगी। तो महावीर कहते हैं, जो मूलतः अहिंसक होना चाहता हो, दूसरे को दुख देने, न देने का प्रश्न नहीं है; अपने भीतर मैं को विलीन कर लेने का प्रश्न है। वहां मैं शून्य हो जाएगा, दूसरे को दुख देना असंभव हो जाएगा। __ और यह भी स्मरण रखें, जिस दिन दूसरे को दुख देना आपको असंभव हो जाएगा, उसी दिन-ठीक उसी दिन- दूसरा भी आपको दुख देने में असमर्थ हो जाएगा। जैसे वृक्ष जितने ऊंचे जाते हैं उतनी ही गहरे उनकी जड़ें होती हैं। वृक्ष की ऊंचाई जितनी ऊपर होती है, उतनी ही गहरी उसकी जड़ें होती हैं। जितना ऊपर वृक्ष विकसित होता है, उतना ही भीतर गहरा होता है। जितना लंबा वृक्ष होगा, उतनी लंबी उसकी जड़ें होंगी। ऐसे ही जो व्यक्ति दूसरों के जीवन में दूर तक दुख पहुंचाता है, उतने ही दूर तक उसके जीवन में भीतर गहरे दुख पहुंच जाता है। बाहर हम जितना दुख फैलाते हैं, उतनी ही गहरी दुख की जड़ें हमारे भीतर पहुंच जाती हैं। जो व्यक्ति बाहर दूसरों को दुख पहुंचाने में असमर्थ हो जाता है, उस वृक्ष के कट जाने पर उसकी जड़ें भी विलीन हो जाती हैं। अगर जीवन में आनंद पाना हो तो महावीर कहते हैं, दूसरे को दुख देने में असमर्थ हो जाओ, तो आनंद को उपलब्ध हो जाओगे। अभी तो हम आनंद पाने में दूसरों को दुख देने की
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy