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________________ चेतना का एक ताप है। महावीर जिसे तप कहते हैं वह चेतना का ताप है। अगर चेतना पूरी की पूरी व्यक्तित्व के प्रति जागरूक हो जाए तो व्यक्तित्व में जो भी कुरूप है वह रूपांतरित होना शुरू हो जाएगा। उसे रूपांतरित करना नहीं होगा। कुछ दिन पहले एक घटना घटी। मेरे एक मुसलमान मित्र हैं। हाई कोर्ट के वकील हैं। जिस गांव का मैं हूं वह उसी गांव के हैं । मेरे पास आए कोई साल भर हुआ । उन्होंने कहा कि बहुत वर्षों से सोचता हूं कि आपसे जाकर बात करूं। लेकिन नहीं आया, क्योंकि जब भी मैं आप जैसे लोगों के पास जाता हूं तो वे कहते हैं कि यह छोड़ो, वह छोड़ो। न मुझसे जुआ छूटता, न शराब छूटती, न मांस छूटता। बात वहीं अटक जाती है। कुछ भी नहीं छूटता। फिर मैं वहीं का वहीं रह जाता हूं। फिर मैंने उनसे पूछा, आज आप कैसे आ गए? उन्होंने कहा कि किसी के घर भोजन पर गया था और उन्होंने कहा कि आप तो कुछ छोड़ने को कहते नहीं। तो मैं सीधा यहीं चला आया हूं। मैंने उनसे कहा कि मैं छोड़ने को क्यों कहूंगा ? छोड़ने से मुझे कोई संबंध नहीं है। आप छोड़ो मत, जागो। आप कुछ देखने की कोशिश करो भीतर, कुछ निरीक्षण करो, कुछ होश से भरो, कुछ मूर्च्छा को तोड़ो। उन्होंने कहा, क्या किया जा सकता है? क्या मुझे जुआ नहीं छोड़ना पड़ेगा ? शराब नहीं छोड़नी पड़ेगी ? मैंने उनसे कहा कि आप जिस चेतना की स्थिति में हैं उसमें शराब अनिवार्य है। अगर एक शराब छोड़ेंगे दूसरी शराब पकड़ेंगे, दूसरी शराब छोड़ेंगे तीसरी शराब पकड़ेंगे। और इतनी किस्म-किस्म की शराबें हैं जिनका कोई हिसाब नहीं । अधार्मिक शराबें हैं, धार्मिक शराबें भी हैं। एक आदमी भजन-कीर्तन कर रहा है दो घंटे से और मूर्च्छित हो गया है। वह उतना ही रस ले रहा है भजन-कीर्तन में, वही रस मूर्च्छा का जो एक शराबी ले रहा है। मंदिर में भी शराबी इकट्ठे होते हैं। वहां भी मूर्च्छित होने की तरकीबें खोजते हैं। एक आदमी नाच रहा है, ढोल-मंजीरा पीट रहा है। उस नाच में, ढोल-मंजीरा पीटने में मूर्च्छित हो गया। अब वह शराब का ही मजा ले रहा है। बहुत किस्म की शराबें हैं। मैंने उनसे कहा, लेकिन चेतना अगर शराब पीने वाली है तो आप शराब बदल सकते हैं, शराब नहीं छूट सकती। चेतना बदले तो कुछ हो सकता है। मैंने उन्हें महावीर का एक छोटा सा सूत्र कहा । महावीर कहते हैं, उठो तो विवेक से, चलो तो विवेक से, बैठो तो विवेक से, सोओ विवेक से । विवेक का मतलब है कि चलते समय पूरी चेतना हो कि मैं चल रहा हूं, बैठते समय पूरी चेतना हो कि मैं बैठ रहा हूं, उठते समय पूरी चेतना हो कि मैं उठ रहा हूं । बेहोशी में कोई कृत्य न हो पाए, सोए-सोए कोई कृत्य न हो पाए । होशपूर्वक जीना हो तो धीरे-धीरे भीतर के समस्त चित्त के प्रति जागना है। और जागते ही रूपांतरण शुरू हो जाता है । जाग कर रूपांतरण करना नहीं पड़ता है । बुद्ध जिसे सम्यक स्मृति कहते हैं, महावीर उसे विवेक कहते हैं, जीसस ने उसे अवेयरनेस कहा है, जिएफ ने उसे सेल्फ रिमेंबरिंग कहा है। कुछ भी नाम दिया जा सकता है, लेकिन एक ही बात है। हम सोए-सोए जीते हैं। मैंने सुना है कि बुद्ध एक गांव से गुजर रहे हैं। एक मित्र से बात कर रहे हैं। एक मक्खी कंधे पर आकर बैठ गई है । बुद्ध ने बात करते हुए मक्खी उड़ा दी है। बात जारी रखी है और 180
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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