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________________ हआ है। वह जो ट्रथ है, वह फैक्ट के भीतर छिपा हआ है। लेकिन हम तो तथ्य को देख ही नहीं पाते, क्योंकि व्याख्या कर लेते हैं। व्याख्या करने वाला मन सत्य को कभी नहीं जान सकता। लेकिन तथ्य को देखने वाला मन धीरे-धीरे तथ्य में प्रवेश करता है और तथ्य में प्रवेश करके सत्य को उपलब्ध हो जाता है। महावीर ने तथ्य देखा कि घटनाएं हैं, न कोई सुख है, न कोई दुख है। और घटनाओं के वे सम्यक निरीक्षक मात्र रह गए। बारह वर्षों की लंबी तपश्चर्या में मुझे जो दिखाई पड़ता है, वह यही कि महावीर हर तथ्य के निरीक्षक मात्र हैं। उन्हें कोई सता रहा है, दुख दे रहा है, तो वे देख रहे हैं। हमें बाहर से लग रहा है कि महावीर को बहुत दुख दिया जा रहा है। महावीर को लग रहा है, एक घटना घट रही है-दुख नहीं। हमें लग रहा है, महावीर को कोई परेशान कर रहा है, कान में कीलें ठोक रहा है, डंडों से चोट पहुंचा रहा है। हमें लगता है कि एक महावीर को दुख दिया जा रहा है। महावीर को लगता है, एक घटना घट रही है। और दुख क्या है, तथ्य है एक! महावीर जब तथ्यों को देखने लगे तो उनके भीतर एक निरीक्षक का जन्म हुआ। वह तथ्य के देखने से ही होता है। एक कांशसनेस का, एक चेतना का, जो मात्र निरीक्षण करती है, व्याख्या नहीं करती। और जब आप किसी चीज का आब्जर्वेशन करेंगे, निरीक्षण करेंगे, मात्र देखेंगे, मात्र साक्षी हो जाएंगे, तो क्या होगा? यह होगा कि तथ्य बाहर खड़े रह जाएंगे और आपको अपनी पृथकता का बोध होगा। व्याख्या के कारण आप पृथक नहीं हो पाते। ___ मुझ पर चोट आपने की, मैं तत्क्षण कहता हूं कि बड़ा दुख हुआ, मेरा बड़ा अपमान किया गया। घटना की जो दूरी थी वह खत्म हो गई, घटना मुझसे जुड़ गई। मैंने जोड़ लिया कि मेरा अपमान किया गया, मुझे दुख दिया गया। अब कल वह जो अभी उन्होंने कहा कि एक्सीडेंट हुआ, लगता है कि बड़ा बुरा हुआ। ऐसा लगता है कि गए, मर जाते तो क्या होता! बाकी तथ्य केवल इतना था कि गाड़ी उलट गई। और दूसरा तथ्य-अगर इतना तथ्य ही रहे कि गाड़ी उलट गई–तो दूसरा तथ्य यह होगा कि आपको लगेगा कि हम केवल देखने वाले हैं और कौन हैं! वहां गाड़ी के उलटने में अगर हम व्याख्या कर लें कि यह तो बहुत बुरा हुआ, यह तो दुख की बात हो गई, यह तो दुर्भाग्य हो गया, तो हम संयुक्त हो गए और निरीक्षक न रहे। तथ्य की जहां व्याख्या है वहीं हम उससे जुड़ जाते हैं और एक हो जाते हैं। और अगर तथ्य की कोई व्याख्या नहीं, केवल तथ्य का दर्शन है, तो हम अलग बने रहते हैं, दूर खड़े रहते हैं। दिखाई पड़ता है कि हम पृथक हैं और घटना घट रही है। तो वे तो कहते हैं कि मैं भी बैठा हुआ था उनके साथ गाड़ी में, मैं नहीं बैठा हुआ था। मैं तो गाड़ी के बाहर ही था, क्योंकि मैं तो देख रहा था कि एक्सीडेंट हुआ। जिनके साथ हुआ वे मुझे दिखाई पड़ रहे थे। उसमें मेरा शरीर भी था, उसमें दूसरे शरीर भी थे। उसमें गाड़ी भी थी, उसमें गाड़ी का उलटना भी था। लेकिन मैं बाहर था। क्योंकि जब आप देख रहे हैं तो आप बाहर हो जाते हैं। जिसको आप देख रहे हैं उससे आप अलग हो जाते हैं। और जिसकी आप व्याख्या कर लेते हैं उसमें आप एक हो जाते हैं। तो यह हो सकता है कि आप गाड़ी में बैठे हों और गाड़ी उलट जाए, और आप बाहर हों और केवल देखने वाले हों। तब तथ्य तथ्य रह जाते 166
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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