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________________ पड़ता, खोना भी नहीं पड़ता। लेकिन अहिंसक सूक्ष्म स्वार्थ की चेष्टा में लगा हुआ है। अपना मोक्ष खोज रहा है। अपना स्वर्ग खोज रहा है। आत्मा पाने की कोशिश कर रहा है। अनंत आनंद की कोशिश कर रहा है । और चूंकि हिंसा इसमें बाधा बनती है, इसलिए हिंसा भी छोड़नी पड़ रही है। हिंसा छोड़ने में दूसरा विचारणीय नहीं है, मेरा ही हित विचारणीय है। एक आदमी रामकृष्ण के पास आता था । उसके घर पर काली का जलसा होता, और वर्ष में दो-चार बार सैकड़ों बकरे कटते, मांस बनता, सैकड़ों लोग भोजन पर आमंत्रित होते । फिर वह बूढ़ा हो गया । फिर उसके यहां काली की पूजा बंद हो गई। तो रामकृष्ण ने पूछा कि सुनता हूं मैं कि अब काली की वह पूजा बंद हो गई। क्या हुआ ? क्या तुम्हारा मन बदल गया ? क्या काली से मन फिर गया? उस आदमी ने कहा कि नहीं, मेरे दांत गिर गए। रामकृष्ण ने कहा, दांत गिर गए! इससे काली की पूजा का संबंध ? वह आदमी हंसने लगा, उसने कहा, असल में काली की पूजा तो बहाना था । असली मतलब तो भोज, आमोद-प्रमोद, आनंद था। बकरे कटते थे, मांस बनता था, उसका मजा था। अब दांत ही न रहे तो क्या काली की पूजा ! और क्या उत्सव ! और क्या समारोह ! वह सब बंद हो गया । लेकिन काली की पूजा करते वक्त अगर कोई कहता कि इस आदमी के दांतों की वजह से यह पूजा कर रहा है, तो वह आदमी पकड़ लेता कि कैसी झूठ बात कर रहे हो! दांत से इसका क्या संबंध ! आदमी के मोटिव्स, आदमी की प्रेरणाएं बड़ी अजीब हैं । यह हो सकता है कि एक आदमी दांतों के स्वस्थ होने की वजह से काली की पूजा कर रहा है। यह हो सकता है कि एक आदमी निपट स्वार्थ की वजह से अहिंसा की बातें कर रहा है । निपट स्वार्थ- मेरा सुख, मेरा मोक्ष, मेरा पुण्य | मैं बच जाऊं, सारी दुनिया जाए नरक में, सारी दुनिया का कुछ भी हो। मैं बच जाऊं, मैं बच जाऊं, मैं बच जाऊं। यह जो सेल्फ, यह जो स्व है, प्रेम में इसके लिए कहां गुंजाइश है! महावीर के जीवन में अहिंसा नहीं है। महावीर के जीवन में है प्रेम | प्रेम है सर्व-मंगल का भाव। अहिंसा है स्व-मंगल की कामना । ये दोनों विरोधी बातें हैं । प्रेम यानी अहिंसा नहीं, अहिंसा यानी प्रेम नहीं। हां, प्रेम में अहिंसा तो सम्मिलित हो जाती है। वह उसकी वृहत्तर परिधि में एक छोटा सा कोना बन जाती है। लेकिन अहिंसा के छोटे से कोने में प्रेम नहीं समाता है। लेकिन व्याख्याकारों ने होशियारी कर ली । महावीर के प्रेम को अहिंसा का नाम देते ही बुनियादी कीमत, बुनियादी कीमत बदल गई, बेसिक वैल्यू बदल गई । और फिर ढाई हजार साल से अहिंसा परम धर्म ! अहिंसा परमो धर्मः ! इसका उदघोष चल रहा है। साधु-संत, पंडितपुरोहित चिल्ला रहे हैं, अहिंसा परमो धर्मः ! और चिल्लाते चले जा रहे हैं। और बड़ा अदभुत है, इस नारे ने सब नष्ट कर दिया। वह महावीर के जीवन का बुनियादी स्वर, वह संगीत की खास चोट, जहां से वे मनुष्य के प्राण को छू लेना चाहते हैं, कि प्रेम हो, वह खत्म हो गई। लेकिन कौन इस बात को कहे ? क्योंकि पंडित शब्दों के अर्थ करने में कुशल होते हैं। वे कहेंगे, अहिंसा यानी प्रेम। वे कहेंगे, अहिंसा का मतलब प्रेम ही होता है। अगर अहिंसा का मतलब प्रेम ही होता है, तो प्रेम ही कहने में हर्ज क्या है! लेकिन एक छोटे से शब्द का फर्क इतने क्रांतिकारी फर्क लाता है जिसका हमें कोई हिसाब नहीं, खयाल नहीं, पता नहीं । 142
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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