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________________ लेकिन अहिंसा को यह चिंता करने की जरूरत नहीं है। महावीर तो प्रेमी हैं, महावीर के अनुयायी अहिंसक हैं। और इतनी होशियारी से बात की गई है कि ऐसा मालूम होने लगा कि अहिंसा यानी प्रेम। अहिंसा यानी प्रेम नहीं है, अहिंसा बुनियादी भूल है। और इसलिए यह परिणाम हुआ कि महावीर का अनुयायी अहिंसा की बातें भी करता रहा, लेकिन उसके जीवन में कोई प्रेम पैदा नहीं हो सका। अहिंसा होगी, प्रेम बिलकुल नहीं है। और अहिंसा बिलकुल थोथी है। फिर यह भी ध्यान रखें, कि प्रेम के परिणाम और हैं, अहिंसा के परिणाम और हैं। जब मैं प्रेम करता हूं, जब मेरा जीवन प्रेम की एक धारा बने, तो मुझे यह फिक्र ही छूट जाती है कि प्रेम करने में मेरा क्या हो रहा है। फिक्र यह रह जाती है कि जिससे मैं प्रेम कर रहा हूं, उस पर क्या हो रहा है। जब प्रेम परिपूर्ण होता है तो व्यक्ति का अहंकार शून्य हो जाता है। उसे खयाल ही भूल जाता है कि मैं हूं भी। वही रह जाता है जिसके प्रति प्रेम है। और अगर सारे जगत के प्रति प्रेम है, जैसा कि महावीर का है-सर्व प्रेम. सर्व मंगल. सर्व करुणा की भावना तो सबके प्रति. अनंत के प्रति जब प्रेम है, तो व्यक्ति अपने को निपट शून्य पाता है कि मैं हूं ही नहीं। क्योंकि प्रेम में स्वयं को स्मरण करने की फुरसत कहां, मौका कहां! स्वयं को तो केवल वे ही स्मरण कर पाते हैं जो प्रेम में नहीं हैं। क्या आपको पता है, जब भी आप प्रेम में होते हैं-छोटे से प्रेम में ही सही, एक व्यक्ति से प्रेम में ही सही-जितनी देर प्रेम का क्षण आपके प्राणों को आंदोलित करता है, उतनी देर के लिए आप मौजूद नहीं रह जाते। आप नहीं हैं फिर। प्रेमी रह गया, आप नहीं हैं। आप न हो गए, आप समाप्त हो गए। वही रह गया जिसके प्रति प्रेम बहा जा रहा है। और जिसका प्रेम सर्व के प्रति बहता हो, वह तो मिट गया। वह तो न हो गया। वह शून्य हो गया। उसका अहंकार समाप्त हो जाता है। प्रेम अहंकार की मृत्यु है। लेकिन अहिंसा अहंकार की मृत्यु नहीं है, बल्कि अहिंसा अहंकार की नई तरह से पूजा है। कैसे? अहिंसक का यह विचार नहीं है कि दूसरे को दुख न मिले। अहिंसक का मूल विचार यह है कि मैं दूसरे को दुख दूंगा तो मुझे पाप कर्म होगा। मुझे पाप कर्म होगा मैं दूसरे को दुख दूंगा तो। मैं दूसरे को दुख दूंगा तो मुझे बुरे फल भोगने पड़ेंगे। मुझे! दूसरे का इससे कोई संबंध नहीं है। मैं दूसरे को दुख दूंगा, दूसरे की हिंसा करूंगा, हत्या करूंगा, तो मुझे नरक जाना पड़ेगा- मुझे! इससे दूसरे का कोई संबंध नहीं है। मैं अगर दूसरे को दुख न दं, अहिंसक रहूं, तो मुझे स्वर्ग मिल सकता है। मुझे ! इसमें दूसरे से कोई संबंध नहीं है। और अगर मैं सर्व हिंसा का त्याग कर दूं, बिलकुल अहिंसक हो जाऊं, किसी तरह की हिंसा मेरे जीवन में न हो, तो मुझे मोक्ष मिलेगा-मुझे ! इससे दूसरे का कोई संबंध नहीं है। अहिंसा की प्रेरणा, अहिंसा शब्द की प्रेरणा, अहंकार, स्वार्थ के अतिरिक्त दूसरी नहीं है। इसलिए तो यह अदभुत घटना दिखाई पड़ती है कि एक आदमी अहिंसक भी है और साथ ही स्वार्थी भी है। प्रेमी स्वार्थी नहीं हो सकता। प्रेमी के स्वार्थ का कोई सवाल नहीं है। प्रेमी तो स्वार्थ को छोड़ता है, खोता है, विलीन करता है। विलीन हो जाता है प्रेम में। छोड़ना भी नहीं 141
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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