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________________ ८८ महावीर : परिचय और वाणी व्यक्ति धीरे-धीरे क्रोध के बाहर हो जायगा, क्योकि समझपूर्वक कोई कभी क्रोध नहीं कर सकता। ___ मेरी वात कई दफा उलटी दीखती है। कई दफा ऐसा लगता है कि इससे स्वच्छपता फैल जायगी, अराजकता का वीजवपन होगा। लेकिन अराजकता फैली हुई है, स्वच्छदता व्याप्त है। मैं जो कह रहा हूँ, उससे अराजकता मिटेगी, स्वच्छता तिरोहित हो जायगी। जिन रास्तो पर हम चल रहे हैं वे हमे साधारण वनाने के रास्ते है। ऐसे रास्ते भी है जो हमे असाधारण बना सकते है । समाज नही चाहता कि व्यक्ति असाधारण वने। उसे साधारण व्यक्ति ही चाहिए, क्योकि साधारण व्यक्ति खतरनाक नही होते, वे विद्रोह नही करते-वे व्यक्ति नही, भीड होते हैं। समाज को भीड को आवश्यकता होती है, व्यक्ति की नही । नेता चाहते है भीड, गुरु चाहते है भीड, शोपक चाहते है भीड । और मैं कहता हूँ कि चाहिए व्यक्ति, क्योकि भीड की कोई आत्मा नही होती; मै चाहता हूँ एक ऐसी दुनिया, एक ऐसा समाज जिसमे व्यक्ति ही व्यक्ति हो, भीड़ नही । जो गुरु अनुयायियो को इकट्ठे करते फिरते हैं, वे हिंसक वृत्ति के लोग है । उनका लक्ष्य ध्यक्ति को मिटाना होता है, भीड़ इकट्ठी करना होता है। जो उनसे राजी होते है, वे स्वय को मिटाकर अनुयायी बनना स्वीकार करते है। अच्छा आदमी यह नही चाहता कि आप उससे राजी हो। अच्छा आदमी चाहता है कि आप सोचना शुरू करे। मैं यह नहीं कहता कि आप मेरी वातो को मान ले । मेरा जोर इस बात पर है कि आप भी इस भाँति सोचना शुरु करे । जीवन मे सोचना शुरू हो, जागना शुरू हो, दमन वन्द हो, अनुगमन वन्द हो तो प्रत्येक व्यक्ति को आत्मा मिलनी शुरू होगी और आत्मा प्रत्येक को असाधारण वना देती है। प्रश्न उठता है कि इन ढाई हजार वर्षों मे जिन श्रावको और साधुओ ने नतो का पालन किया, क्या वे सब-के-सब पाखडी थे, क्या उनके लिए सत्य के ज्ञान की कोई सम्भावना नही थी ? ____मैं कहता हूँ-नही, कभी कोई सम्भावना न थी। असल मे व्रत पालनेवाला कभी भी पाखडी होने से बच नही सकता । व्रती पाखडी होगा ही । व्रत लेता वही है जो भीतर सोया हुआ है। जो जग गया है, वह व्रत नहीं लेता-व्रत आते हैं उसके जीवन मे। कोई व्रती पाखडी न रहा हो, यह असम्भव है । व्रत का मतलब क्या है ? ब्रत का मतलब है दमन, चित्त की उस दशा का दमन जिसके विपरीत आप व्रत ले रहे है । मैं कामवासना से भरा हूँ, इसलिए ब्रह्मचर्य का व्रत लेता हूँ; हिंसा से भरा हूँ, इसलिए अहिंसा का व्रत लेता हूँ, परिग्रह से भरा हूँ, अपरिग्रह का व्रत लेता हूँ। न तो परिग्रह का व्रत लेना पड़ता है और न हिंसा या कामभासना का । जो हम है उसका व्रत लेना नही पडता। जो हम नही है, उसका व्रत
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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