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________________ ८२ महावीर : परिचय और वाणी मे है। वह हे अभी और यही । जो नही जानते, वे कहते है--'जो खोजने की इच्छा कर रहा है, उसे खोजो।' लेकिन जो जानते हैं, वे कहेगे---'जहाँ से प्रश्न उठा है, वही उतर जाओ--अन्यत्र न खोजो।' सच तो यह है कि पाने की भाषा ही गलत है। जिसे पा लिया गया है उसका आविष्कार कर लेना है । इसलिए आत्मा उपलब्ध नहीं होती, सिर्फ जो ढका हुआ होता है, उसे उघाड़ लिया जाता है। मीर आत्मा ढकी होती है हमारी खोज करने की प्रवृत्ति से; ढकी होती है हमारी और कही होने की स्थिति से । सामायिक न तो कोई क्रिया है, न कोई अभ्यास। यह न कोई प्रयत्न है और न कोई साधना । पाने की सब आकाक्षा स्वय के बाहर ले जाती है । जब पाने की कोई आकाक्षा नहीं रह जाती तब आदमी स्वय मे वापस लौट आता है। यह जो वापस लौट आना है और घर मे ही ठहर जाना है, 'सामायिक' कहलाता है। महावीर ने अद्भुत व्यवस्था की है 'अक्रिया' मे उतर जाने की। होने मात्र में उत्तर जाने की। जिसकी समझ मे न आ जाय उसके लिए सामायिक के करने का प्रश्न ही नहीं उठता । जिसकी समझ मे न आवे वह कुछ भी करता रहे, फर्क नहीं पड़ता। साराश यह है कि सामायिक के लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं । कुछ देर के लिए कुछ भी करना नहीं है, जो हो रहा है, उसे होने देना है। विचार आते हो तो उन्हें आने देना है, भाव उठते हो तो उन्हे उठने देना है। सव होने देना है। थोडी देर के लिए आप कर्ता न रहे, वस साक्षी वन जायँ। सामायिक तभी होगी जब आप विलकुल ही अप्रयास होंगे। युद्ध या कुश्ती की एक कला का नाम है जुजुत्सू । जुजुत्सू मे हमला करना नही सिखाते, वरन् यह बतलाते हैं कि जब प्रतिद्वन्द्वी तुम्हारी छाती मे घूसा मारे तो उसके घूसे के लिए जगह बना देना, राजी होकर उसके घूसे को पी जाना । सामायिक का मतलव भी यही है-चित्त पर होने वाले हमलो के लिए राजी हो जाना । चित्त पर विचारो का, क्रोध और वासना का सतत आक्रमण जारी है। सबके लिए राजी हो जाना। कुछ करना ही मत । जो हो रहा है, होने देना। यही सामायिक है। चारित्र-सम्बन्धी शास्त्रगत विचारो से मेरे विचारो का तालमेल नही बैठता। चरित्र की जो धारणा प्रचलित रही है उससे मैं बिलकुल असहमत हूँ। मैं यह भी १. उदाहरणार्थ : "सदृष्टि ज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।। यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥३॥" रत्नकरंड० । ___ अर्थात्-'धर्म के प्रवर्तक सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को धर्म कहते है । इनके विपरीत मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र संसार के मार्ग है।
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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