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________________ महावीर : परिचय और वाणी कभी कोई महावत' तक नही जाता। महावत की उपलब्धि से अनेक अणुव्रत आप ही उपलब्ध हो जाते है। पूरे अहिंसक ढग से जीने का अर्थ है महाव्रत-पूर्ण अपरिग्रह, पूर्ण अनासक्त । मूर्छा के टूटते ही महाव्रत उपलब्ध होता है। मूर्छा टूट जाय तो मन ही टूट जाता है, चीजो से लगाव छूट जाता है। यदि कोई कहे कि 'यह मकान मेरा है तो उसकी मूर्छा इस 'मेरा' में होगी। मृमकान मे सोने मे नही है। मूर्छा टूटने का मतलब यह नहीं कि चीजे हट जायें-अपरिग्रह का मतलब यह नहीं कि चीजे न हो। ____एक सम्राट् किसी सन्यासी से बहुत प्रभावित था। उसने सन्यासी से कहा : 'मेरे पास इतने बडे महल है, आप वहां चलें।' सत्राट् ने सोचा था कि सन्यासी इनकार कर देगा, परन्तु सन्यासी ने कहा . जैसी आपकी मर्जी।' और वह डडा उठाकर खडा हो गया । सम्राट को आश्चर्य हुना। उसे ऐसा लगा मानो सन्यासी महल में रहने की प्रतीक्षा ही कर रहा था । सम्राट ने उसे अपना कमरा दिखाया और पूछा 'आप यहाँ ठहर सकेगे न ?' सन्यासी ने कहा : 'बिलकुल मजे से।' और सन्यासी राजा के मखमली गद्दे पर उसी तरह सोने लगा जैसे वह नीम के नीचे सोया करता था। छह महीने बीत गए। एक दिन सम्राट ने कहा · 'अब तो मुझ में और आपमे कोई भेद मालूम नही होसा। आप ही सम्राट हो गए है, बिलकुल निश्चिन्त हैं, राजसी ठाटबाट का आनन्द लेते हैं।' संन्यासी ने उत्तर दिया : (फर्क जानना चाहते हो तो आगे चलो।' दोनो चल पड़े। बगीचा पार हो गया, राजधानी निकल गई। सम्राट ने कहा : 'अव तो बताएँ, फर्क क्या है ?' सन्यासी ने और आगे चलने को कहा। अन्त मे सम्राट ने कहा : 'घूप चढी जाती है और हम नदी के पार आ गए हैं। अव लौट चले ।' सन्यासी ने कहा - 'नहीं, अब मैं लौटूंगा नहीं। तुम भी मेरे साथ चलो।' सम्राट् ने उत्तर दिया • 'मैं कैसे जा सकता हूँ? मेरा मकान, मेरा राज्य-इनका क्या होगा ?' सन्यासी ने कहा - 'तो तुम लौट जाओ, लेकिन हम जाते है। अगर फर्क दिख जाय तो देख लेना। मगर यह मत सोचना कि हम तुम्हारे महल से डर गए। अगर लौट चलने को कहोगे तो हम लौट चलेगे। लेकिन तुम्हारी शंका फिर पैदा हो जायगी। इसलिए अब हम जाते हैं।' के शब्दो में "श्रमण के अहिसादि पांच महानतों की अपेक्षा लघु होने के कारण श्रावक के प्रथम पाँच व्रत अगुबत अर्थात् लघुव्रत कहलाते है" देखिए जैन आचार (१९६६), पृ० ८५-१०४। १. अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह "पाणिवह-मसावाया-अदत्त-मेहण-परिग्गहा विरो। राईओयण विरओ, जीवो भवइ । अणासवो ॥"
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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