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________________ ५४ महावीर : परिचय और वाणी इस सम्बन्ध मे स्मरण रखना होगा कि महावीर की अहिंसा किसी तत्त्व-विचार से नहीं निकली, वह नीचे के जगत के साथ उनके तादात्म्य से निकली है। उस तादात्म्य मे उन्होने नीचे के जगत् की जो पीडा अनुभव की थी, उसी पीडा की वजह से अहिंसा उनके जीवन का परम तत्त्व बन गया था। वह पीड़ा अत्यन्त सघन थी, असह्य थी। उन्होने यह भी महस्स किया कि अगर व्यक्ति पूर्ण अहिंसक न हो जाय तो नीचे के मूक जगत् से तादात्म्य स्थापित करना बहुत मुश्किल है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम तादात्म्य उसी के साय स्थापित कर सकते है जिसके प्रति हमारा समस्त हिंसक, आक्रामक भाव विलीन हो गया हो और हृदय प्रेम से ओतप्रोत हो । अगर मूक जगत् से तादात्म्य स्थापित करना है तो अहिंमा शर्त भी है, नही तो वह तादात्म्य स्थापित नहीं हो सकता। सत फासिस को देखकर नदी की सारी मछलियाँ तट पर इकट्ठी हो जाती, जिस वृक्ष के नीचे वे वैठते, उस पर जगल के सारे पक्षी आ जाते, उनकी गोद मे उतरने लगते, उनके सिर पर वैठ जाते । वन के पशु-पक्षी अपनी अन्त प्रज्ञा से जानते थे कि सत फ्रासिस से उनकी कभी कोई हानि न होगी। यह अन्त प्रज्ञा सभी पक्षियो के पास है। इसी अन्त प्रज्ञा के फलस्वरूप जापान की एक चिडिया भूकम्प आने के चौबीस घटे पहले गाँव छोड देती है । उत्तरी ध्रुव पर रहनेवाले सैकडो पक्षी बर्फ गिरने के एक महीने पहले यूरप के समुद्री तटो पर चले जाते है और हजारो मिल की दूरी तय कर लेते है। आश्चर्य है कि वे इस देशान्तरण की प्रक्रिया मे रास्ता नही भूलते और वर्फ गिरना बन्द होने के महीना भर पहले वापसी यात्रा शुरू कर देते है । वे जहाँ से आते है ठीक वही अपनी जगह वापस लौट जाते है। हमारे हृदय की भावधारा के स्पन्दनो को उनकी यह प्रज्ञा शीघ्र पहचान लेती है, उन्हे स्पर्श कर लेती है, और वे हमसे सचेत हो जाते है । मुझे विश्वास है कि महावीर ने जितने पशुओ और पौधो की आत्माओ को विकसित किया है, उतने पशुआ और पौधो को इस जगत् मे किसी दूसरे व्यक्ति ने विकसित नही किया । सत्य के अनुभव को सवाहित करने का प्रयोग गौतम बुद्ध ने भी किया था, किन्तु वह मनुष्यो से ज्यादा गहराई पर नही गया। सच तो यह है कि न तो क्राइस्ट ने, न बुद्ध ने, न जरतुश्त ने, न मुहम्मद ने, न किसी अन्य व्यक्ति. ने मनुष्य तल से नीचे जो एक मूक जगत का फैलाव है, जहाँ से हम आ रहे है, जहाँ हम कभी थे, जिससे हम पार हो गए-वहाँ पहुँचने का कोई मार्ग बताया। महावीर ने महसूस किया था कि उस जगत् के प्रति भी हमारा एक अनिवार्य कर्त्तव्य है कि हम उसे पार होने का रास्ता बता दे और खबर कर दे कि वह कैसे पार किया जा सकता है । उन्होने अहिसा के तत्त्व पर जो इतना बल दिया है उसका एक कारण यह है कि नीचे के मूक जगत् से पूर्ण अहिंसक वृत्ति के विना सम्बन्धित होना असम्भव हे । सम्बन्धित हो जाने पर उस मूक जगत् की अनन्त-अनन्त पीडाओ का
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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