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________________ ४० महावीर : परिचय और वाणी प्रतिक्षण, प्रतिपल इतने आनन्द से भर गया है कि उसे कल की चिन्ता नही होती, आज काफी है। ऐसा व्यक्ति पकडता ही नहीं। वस्तुत जिसको पकडने की आदत है उसकी पकड कभी नही जाती-वह छोड़ने को भी पकड लेता है। उसने कभी धन पकडा था, अब वह त्याग पकड लेगा ; उसने कभी मित्र पकडे थे, अब वह परमात्मा को पकडेगा , कल खाते-वही पकडे थे, आज वह गास्त्र पकडेगा। शास्त्र भी खातेबही है और धर्म भी सिक्का है जो कही और चलता है। पुण्य भी मोहरे है जो कही और काम देती है। पकडनेवाले चित्त से छुटकारा तभी मिलता है जब यह दिखाई पड़ जाय कि मै किसी का, किसी भी वस्तु का, स्वामी नही हूँ। यदि मैं कहूँ कि मैं अब इस मकान का स्वामी न रहा, मैने इसका त्याग किया, तो प्रश्न उठेगा-मै ही त्याग कर रहा हूँ न ? और क्या त्याग मैं उसका कर सकता हूँ जो मेरा ही नहीं ? स्पष्ट है कि त्याग करनेवाला यह मानकर चलता है कि मकान मेरा है । चित्त को जब यह वोध हो जाय कि यहाँ अपना कुछ नही तव उसमे रूपातरण हो जाता है और तब कुछ त्यागना और छोडना नही पडता। जो मेरा नही है, उसका त्याग क्या ? अगृही से उस व्यक्ति का बोध नहीं होता जिसने घर छोड़ दिया है। वह तो वह ज्ञानी है जिसने पाया कि मेरा कोई घर नही । सन्यासी उसे नही कहते जिसने अपनी पत्नी का त्याग किया। सन्यासी वह है जिसने पाया कि मेरी कोई पत्नी नही । कहने का तात्पर्य यह कि महावीर ने कुछ त्याग नही किया, जो उनका नही था, वह दिखाई पड गया। इसलिए यह कहना निरर्थक है कि वे सव छोडकर चले गए। वे जानकर चले गए कि कुछ भी उनका नही है। एक वार वादशाह इब्राहीम के राजमहल के दरवाजे पर एक सन्यासी शोरगुल मचाने लगा। उसने पहरेदार से कहा, मुझे भीतर जाने दो, मैं इस सराय मे ठहरना चाहता हूँ। पहरेदार को हँसी आ गई और उसने सन्यासी को पागल समझा । परन्तु सन्यासी न रुका । वह राजमहल के अन्दर पहुँचा ही था कि इब्राहीम ने, जो उसकी वाते सुन रहा था, कहा तुम कैसे आदमी हो जो सराय और राजमहल मे अन्तर नही देखते ! यह सराय नही, मेरा महल है। सन्यासी ने जवाब दिया मैने समझा था कि आपका पहरेदार नासमझ है; आप भी वैसे ही है । पहरेदार क्षमा के योग्य है, आखिर वह पहरेदार ही है। आपको भी यही खयाल है कि यह आपका निवासस्थान है ? सम्राट ने कहा खयाल ? नही यह मेरा घर है, यही असलियत है। सन्यासी ने कहा वडी मुश्किल में पड़ गया मै । दस साल पहले भी किसी ने कहा था, यह महल मेरा ही है । इब्राहीम ने कहा वे मेरे पिता थे, उनका देहावसान हो गया। तब उस फकीर ने कहा मै उनके पहले भी आया था, तव एक और बूढे ने इस महल को अपना वतलाया था। वह भी इसी जिद मे था कि यह महल
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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