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________________ महावीर परिचय और वाणी ३२१ उमसे कुछ मिलेगा। उसका विप्य है। महावीर की सेवा मेडिसिन की तरह है। उसमे बीमारी पटेगी, कुछ मिरेगा नही । वे कहते हैं कि अगर कोई सेवा भरता है तो यह इसलिए करता है कि उसने किसी पाप का प्रक्षालन हाना है । अगर नहा है पाप या प्रक्षालन, ता यात समाप्त हो गई-ता काई मेरी मेवा नहीं कर रहा है। इसलिए आप जब भी सवा कर रह हा तव ध्यान रखें पि" वह भविष्यो मुग न हो। तभी आप अतर्तप कर सकते हैं । जब आप सवा पर रह हा तो वह निप्पयाजन हो, अयथा आपकी सवा. अन्तरतप न होगी। वयावृत्य अतरतप इसी पारण है कि इसका वरना परिन है। वह सवा सरर है जिसम पोई रस आ रहा हो। वह मवा वयावृत्य नहीं है जिससे मवा करनेवाले ये मन म सिमी तरह के गौरव की भावना या उमौरन हो। (४) महावीर न वयावत्य के बाद ही जा तप रहा है वह है स्वाध्याय । यया वत्य ये सम्यर प्रयोग के बाद स्वाध्याय म-इस चौथे तप म-उतरना अत्यत सरर है। लेकिन म्वाध्याय का अथ शास्त्रा का अध्ययन या पटन मनन नहीं है। महावीर इसकी जगह अध्ययन गर का प्रयाग पर रावते थे, लेरिनरहा न स्वा घ्याय या ही प्रयाग किया। अध्ययन मे 'स्व' जाडने की क्या आवश्यकता थी? अध्ययन पापी था। वस्तुत स्वाध्याय वा अथ होता है स्वय का अध्ययन, शास्त्रा पा अध्यया नहीं। लेकिन साधु शास्त्र सारे वठे हैं। उनसे पूछिए सुबह से क्या पर रह हैं ? वे कहेंगे म्वाध्याय पर रहा हूँ। पास्त्र, निश्चित ही, विमी और या होगा । 'स्व' का शास्त्र नहा बन सकता और अगर गुद के ही शाम्म पढ रहे हैं तो विरसुल बार पढ़ रहे हैं। माध्याय या जय है-स्वय पा अध्ययन । यह वडा कठिन है (इसीलिए इस अतरतप कहा है) जर बिगास्त्र पड़ना बडा सरर है। आप यहून जटिल हैं, उरपना में भरे हैं अथिया व जाल हैं एक पूरी दुनिया हैं। हजार तरह ये उपद्रव है यहाँ । सासवर उध्ययन का नाम स्वाध्याय है। अगर आप अपन प्राप या अध्ययन कर रह हैं ता भी स्वाप्पाय कर रहे हैं । पिन अगर आप प्रोष में सम्बप मनास्ता मा अध्ययन कर रहे हैं ता यह स्वाध्याय नहा है। जो भी विमी शास्त्र मगिया है वह मय आपो भीतर मौजूर है। इस जगत म जितना भी जाना गया है यह प्रत्यर आमी पातर यतमान है। आदमी स्वय एव शास्त्र है, परम गारत्र, अन्टीमट रित्र पर। इस बात का समसा महापौर का स्वाध्याय ममा म मा जाएगा। माष्य परम गाम्य है, पापियामा आ गया है यह माप्य नही जाना है और जो भी जाग जायगा पर मनुष्य ही जाना। इगलिए महावीर ने पहामि एर का-यय या-जान देने में सपरा ना लिया जाता है। ग्याध्याय या अप
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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