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________________ ३०० महावीर : परिचय और वाणी को ही अपना काम करने दे । अगर मस्तिष्क में भोजन का चिन्तन न चले, तभी अनशन का कोई उपयोग है.--यानी तव, जव भोजन भी नहीं और भोजन का चिन्तन भी नही। ____ क्या आपको पता है कि आपके चिन्तन के दो ही हिम्ने है ? चाहे तो काम या भोजन ? गहरे मे तो स्वाद की वासना काम-वासना ही है, क्योकि भोजन के बिना काम-वासना सम्भव नही है। महावीर से पूछेगे तो वे कहेंगे कि जो आदमी भोजन के लिए बहुत आतुर होता है वह वस्तुत काम-वासना से भरा है। भोजन इसका लक्षण है, क्योकि भोजन काम-वासना की शक्ति को बढाता है। इसलिए महावीर कहेंगे कि जो भोजन के चिन्तन से भरा है वह काम-वासना से भरा है। भोजन की वासना के छूटते ही काम-वासना शिथिल होने लगती है। (१५-१६) यह भी ध्यान रहे कि हमारे मन की गहरी ने गहरी तरकीब परिपूरक-'सन्स्टीट्यूट क्रिएशन'-पैदा करना है। अगर आपको भोजन नहीं मिलेगा तो आप मन ही मन भोजन का चिन्तन करने लगेगे और इस चिन्तन में उतना ही रस लेने लगेगे जितना भोजन मे । ./ (१७) भोजन करते तो पन्द्रह मिनट में वह पूरा हो जाता। चिन्तन मे पन्द्रह “मिनट से काम चलने को नही। पन्द्रह मिनट का काम पन्द्रह घटे करना पड़ेगा। चूंकि भोजन की शक्ति तो मिलेगी नहीं, इसलिए मन को चिन्तन मे ही उलझाए रखना पडेगा। इसलिए महावीर ने कहा है कि आप कोई काम गरीर से करते हैं या मन से, इसमे मैं भेद नही करता। आपने चोरी की या चोरी की वावत सोचा, मेरे लिए दोनो बरावर है, दोनो पाप हैं। आपने हत्या की या हत्या के सम्बन्ध मे सोचा, दोनो समान है। अदालत फर्क करती है। अगर आप हत्या के सम्बन्ध मे केवल सोचे तो अदालत आपको सजा नही दे सक्ती। लेकिन महावीर कहते हैं कि धर्म भाव को भी पकडता है। आप धर्म की अदालत से वाहर नहीं हो सकते । भाव पर्याप्त हो गया । महावीर कहते हैं कि कृत्य तो भाव को वाह्य छाया मात्र है। मूल तो भाव ही है । अगर मैंने हत्या करनी चाही तो मैंने हत्या कर ही दी । अन्तत. आप भीतर तौले जाएँगे, आपकी परिस्थिति नहीं तीली जाएगी। अगर आपने भोजन का चिन्तन किया तो आपका उपवास नष्ट हो गया। इसका मतलब यह हुआ कि आप तब तक उपवास न कर पाएंगे जव तक अपने चिन्तन पर आपका नियत्रण न हो । अभी तो हालत यह है कि आपका चिन्तन ही जो चलाना चाहता है, वही आपको चलाना पडता है, मन जहाँ ले जाता है, वही आपको जाना पड़ता है। आपके नौकर ही आपके मालिक हो गए हैं। (१८) सभी इन्द्रियाँ आपकी नौकर है, लेकिन मालिक हो गई है । आपने कभी अपनी इनद्रियो को कोई आज्ञा नही , उन्होने ही आपको आज्ञा दी है। तप का एक
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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