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________________ २९० महावीर : परिचय और वाणी कुर्सी के परमाणुओ का अपने भीतर घूमना कुर्ती की पहली गति है। प्रत्येक परमाणु अपने न्यूक्लियस पर--केन्द्र पर-चक्कर काट रहा है। फिर पुती जिस पृथ्वी पर रखी है, वह पृथ्वी अपनी कील पर घूम रही है। इसलिए कुर्सी भी पूरे समय पृथ्वी के साथ घूम रही है । यह उसकी दूसरी गति है । पृथ्वी सूर्य के चारो ओर परिभ्रमण कर रही है। यह कुर्सी की तीसरी गति है । उसकी चौथी गति का कारण यह है कि मूर्य अपनी कील पर घूम रहा है और उसके साथ उसका सारा सौर परिवार-कुर्नी भी-घूम रहा है। पांचवी गति-वैज्ञानिक कहते है कि सूर्य किमी महामूर्य का चक्कर लगा रहा है। बडा चक्कर है वह । कोई वीन करोट वपों में एक चक्कर पूरा होता है। यह पांचवी गति कुर्मी भी कर रही है, क्योकि वह भी सौर परिवार से बाहर नही है । वैज्ञानिको का खयाल है कि जिन महासूर्य का परिभ्रमण हमारा सूर्य कर रहा है, वह महासूर्य भी अपनी कील पर घूम रहा है और उसके साथ हमारी कुर्सी भी गतिमान् है। वैज्ञानिको ने एक और गति की चर्चा की है, सातवी गति की। उनका कहना है कि वह महासूर्य जो अपनी कील पर घूम रहा है, दूसरे सौर परिवारो से प्रतिक्षण दूर हटता जा रहा है। पदार्थ की ये ही सात गतियाँ हैं। आदमी मे प्राण अथवा जीवन मे, एक आठवी गति भी है। जहां कुर्सी चल नहीं सकती वहाँ जीवन चल सकता है। धर्म की दृष्टि मे नौवो गति भी है। वह कहता है कि आदमी तो चलता ही है, उसके भीतर की ऊर्जा भी नीचे या ऊपर की ओर जा सकती है । तप का संबंध इस नौवीं गति से ही है। आठ गतियो तक विज्ञान काम. कर लेता है, किन्तु धर्म की सारी प्रक्रिया का केन्द्र नौवी गति है । (३-५) हमारे भीतर की जो ऊर्जा है वह नीचे या ऊपर जा सकती है । जब हम काम-वासना से भरे होते हैं तब हमारी ऊर्जा नीचे जाती है, जब हम आत्मा की खोज से भरे होते है तब वह ऊपर की ओर जाती है। इसी प्रकार जब हम जीवन से भरे होते है तब हमारी ऊर्जा भीतर की तरफ जाती है। धर्म की दृष्टि मे भीतर और ऊपर एक ही दिगा के नाम हैं। (६-७) एक वडे मजे की वात है कि ठहरी हुई कील पर ही चाक को चलना पडता है। अगर कील भी चल जाए तो गाडी गिर जाए। इसका अर्थ यह हुआ कि विपरीत से ही सतुलन आता है। इसलिए तपस्वी की चेप्टा होती है कि वह अपने चारो ओर इतनी अग्नि पैदा कर ले कि उस अग्नि के अनुपात मे उसके भीतर शीतलता का बिन्दु पैदा हो जाए , वह अपने चारो ओर इतनी गत्यात्मक गक्ति को जनमा ले कि भीतर शून्य का विन्दु उपलब्ध हो जाए, वह अपने चारो ओर ऊर्जा के इतने तीन परिभ्रमण से भर जाए कि उसकी धुरी ठहर जाए, खडी हो जाए। तपस्वी वह है जो ताप से भरा हुआ है परन्तु जिसका केन्द्र शीतल है । तपस्वी वह है जिसके चारो ओर शक्ति जग जाती है परन्तु जिसके केन्द्र पर शीतलता आ जाती है। वैज्ञा
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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