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________________ महावीर परिचय और वाणी २५५ की लम्बी याना है। मैं किसी की यायाम किसी भी कारण बाधा न वनू । मैं चप चाप अपनी पगडडी पर चलता रहूँ । मैं ऐसा हो जाऊँ जसे है ही नहीं। (१८) महावीर की अहिंसा का यही गहनतम अर्थ है--में ऐसा हो जाऊँ जस मैं हूँ ही नहीं। मेरी उपस्थिति कही प्रगाढ न हो जाय, मेग होना कही किमी के होन में जरा सा भी अडचन और व्यवधान न बने । मैं जीते जी मर लाऊँ। __ अपनी उपस्थिति का अनुमय परवाना ही महावीर की दष्टि में हिंसा है। जब मैं चाहूँगा कि आप मेरी उपस्थिति का अनुभव पर ता मैं यह भी चाहूंगा कि थापकी उपस्थिति का मुझे पता न चले। मरी उपस्थिति का आपदा पता चले, यह तभी हो सकता है जब मैं आपको उपस्थिति का एम मिटा दू जस आप हैं ही नहीं । हम सबकी कोशिश यही होती है कि दूसरे को उपस्थिति मिट जाय और हमारी उपस्थिति कायम रहे लोगा का महसूस हो-यही हिसा है। अहिंसा इसके विपरीत है। दूसरा उपस्थित हो और इतनी छिी तरह उप स्थित हो कि मेरी उपस्थिति से उसकी उपस्थिति म कोई बाधा न पड़े। अहिंसा का गहन अथ यही है-~-अनुपस्थित व्यक्तित्व । चाहे हम हीरे का हार पहन कर खडे हा गए हो मा हमन लाखा क वस्य डार रसे हा या हम नग्न पडे हो गए हा-हमारी कोशिश यही है कि दूसरा अनुभव पर कि मैं हूँ। मैं चन से बैठने नहीं दूगा । आपका मानना ही पडेगा कि म हूँ 1 छोटे-छोटे बच्चे भी ऐसा हिंसा म निष्णात होना शुरू हो जाते हैं और मेहमाना के सामने अपन हान की पापणा दिए बिना नहीं रहते। इसका कारण यह है कि हमारा पूरा-या पूरा आयोजन, हमारा पूरा समाज हमारी पूरी सम्वृति अहवार पर निर्मित है, अधम की नीव पर खड़ी है। (१९२०) अहिंसक वह है जो परिवतन के लिए जरा भी चेष्टा नहा करता। उसके लिए जो हो रहा है वह ठीक है। जीवन रहे ता ठीक, मृत्यु आ जाए ता ठी । हमारी हिंसा किस बात से पदा हाती है ? इसस यि जो हो रहा है वह नहा, जो हम चाहते हैं वह हा । इसलिए जिस युग म परिवतन का जितनी ज्यादा भावाभा भरती है, वह यग उतना ही हिंसक हाता चल जाता है। (२१) महावार की अहिंसा या अथ यह है कि जो है उसके लिए हम राती हैं। कोई वदलहट नहीं करनी है। आपने चांटा मार दिया, ठीक है हम राजी हैं । हम अब कुछ भी नही करना है, बात समाप्त हा गट। हमारा याई प्रत्युत्तर नहीं है । जाजम पहते ह दूसरा गार मामने पर दो। महावीर इतना भी नहीं कहत, क्यावि दूसरा गा सागन करना भी एक उत्तर है । महावीर कहत है कि परना ही हिमा है कम ही हिंसा है जपम अहिंसा । तुम चुपचाप गुरते जाना। पानी म रहर उठतो है उसे मिटानी नहा पडती, वह अपने आप मिट जाती है । इस जगत म जा
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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