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________________ २५२ महावीर : परिचय और वाणी है। सुख सिर्फ कल्पना मे ही एक अनुभव है। लेकिन दुख, जो कि अनुभूत है, हम भुलाए जाते हैं और मुख, जो कि कल्पना है, हमे खीचे चला जाता है । महावीर का यह सूत्र इस पूरी बात को बदल देना चाहता है। धर्म मगल है। मानन्द की तलाग स्वभाव मे है। आपके जीवन मे कभी अगर आनन्द की कोई छोटी-मोटी किरण उतरी होगी, तो वह तभी उतरी होगी जब आप जाने-अनजाने किसी भॉति __ एक क्षण के लिए स्वय से सवद्ध होगे। (१०) एक पत्नी को बदलकर दूसरी पत्नी के साथ जो क्षण भर का नुख मिलता है, वह सिर्फ वदलाहट का मुख है। वदलाहट का सुख भी सिर्फ इसलिए कि दो चीजो के वीच से क्षण भर के लिए आपको अपने भीतर से गुजरना पडता है । अनिवार्य है कि जब मैं एक से टूटू और दूसरे से जुई, तो टूटने और जुड़ने के बीच मे जो गैप या अन्तराल है, उसमे कही तो रहूँगा। उसमे मैं अपने मे रहूँगा। वही अपने मे रहने का क्षण प्रतिफलित होगा और लगेगा कि दूसरे से सुख मिला। सभी बदलाहट अच्छी लगती है। बस, वदलाहट का-यानी 'चेन्ज' का जो सुख है, वह क्षण भर के लिए अचानक अपने से गुजर जाने का सुख है। इसलिए आदमी शहर से जगल भागता है, भारत से यूरप जाता है और यूरप से भारत आता है । (११) समी बदलाहटे आपके भीतर एक ऐसी स्थिति ला देती है कि आपको अनिवार्यरूपेण कुछ देर के लिए अपने भीतर से गुजरना पडता है। उसका ही प्रतिविम्ब आपको सुख मालूम पडता है। अपने भीतर से क्षण भर गुजरते ही यदि आप सुखी हो जाते हैं तो जो सदा अपने भीतर जीने लगता है, उसके सुख की क्या सीमा होगी। _ आधा सत्य हमारे पास है कि 'दूसरा' ही दुख है। कामना दुख है, वासना भी दुख है, क्योकि कामना और वासना सदा दूसरे की तरफ दौड़ानेवाले होते है । वासना का अर्थ है-दूसरे की तरफ दौडती हुई चेतन-धारा, भविप्य की ओर उन्मुख जीवन की नोका। अगर दूसरा दुख है तो उसकी ओर ले जानेवाला जो सेतु है, वह नर्क का सेतु है । उसको महावीर वासना कहते हैं। वही बुद्ध के लिए तृष्णा है । वासना का न दीडना आत्मा का हो जाना है। आत्मा उस शक्ति का नाम है जो अपने मे खडी है। अहिंसा, सयम और तप दौडती हुई ऊर्जा को ठहराने की विधियो के नाम हैं। धर्म के दो रूप है। धर्म स्वभाव है और धर्म विधि है स्वभाव तक पहुँचाने की। धर्म का जो आत्यन्तिक रूप है वह है स्वभाव, स्वधर्म । चूंकि हम स्वभाव से भटक गए है, इसलिए यह कहने की जरूरत पड़ती है। स्वस्थ व्यक्ति चिकित्सक से नहीं पूछता कि मैं स्वस्थ हूँ या नहीं। ( १२) धर्म का परम सूत्र है स्वभाव । अहिंसा धर्म की आत्मा है, केन्द्र है । तप धर्म की परिधि हे और सयम केन्द्र को
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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