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________________ २५१ महावीर परिचय और वाणी हैं। महावीर अपने घर म नितने दुसी हुए, उनके घर के मामने भीख मागनवाया मिनारी भी उनना दुसी न था। महावीर का दुस इस बात से पैदा हुआ है कि उस युग मजा भी मिल सकता था वह मिरा हुमा था। इन रिए कोइ भविष्य नहा बचा था। जन भविष्य बचे वा सपन कहा सटा कीजिएगा? जर भविष्य न बच तो कागज की नाव विस सागर में चलाइएगा ? भविष्य में सागर में ही चलती है कागज का नाय । अगर भविष्य न बच ता किम भूमि पर ताशा का भवन बनाइगार अगर तागा का भवन बनाना हा तो भविष्य की नाव चाहिए। (७) हम भी अनुमव है एकिन हम पीछे लौटकर नहीं देखत । हम आगे हो दखे चले जाते हैं। जा आदमी आगे ही देखे चला जाता है वह कभी धार्मिक नही हो सकेगा। उस अनुभव स कोई लाभ न होगा। भविष्य म साई अनुभव नहीं है अनुभव तो अतीत म है। आदमी की स्मृति भी बहुत अदभुत है । उसे खयार नहीं रहता कि जिस कपडे का गा विण्डो म दपकर उसे क्तिना गुनगुदी मालूम पडी थी, वही जब उसके शरीर परहाता है तब उनम कोई प्राति घटित नहीं हाती कोइ स्वग उतर) नहा आता | वह उतना का उतना ही दुग्ला रहता है। हा जब दूसरी दुकान का" गा विण्डो में उसका मुख रट जाता है। अव दुमरी दुवान की शो विण्डा उसकी नाद सराव कर देती है। पाछे लाटकर अगर दखें तो आप पाएंगे कि आपन जिनजिन सुसा की कामना की भी व सभी दुस सिद्ध हो गए। थाप एक भी ऐसा सुख नहीं बता सक्त जिसकी आपन कामना का थी और जो मिरने पर सचमुच मुस सिद्ध हुआ हो। आश्चय है कि आदमा फिर भी वही पुनरक्ति विए चला जाता है और कर के लिए पहली-जसी योजनाएं बनाता है। वह जिस गडढ म कर गिरा था आज फिर उसी की तलाश करता है। ऐसा नहीं कि वह केवल पर ही गिरा था । वह रोज रोज गिरता है फिर भी उसकी भ्राति नही टूटती । (८) असल म दूसरा पटक्ता है ता हम हसत है लेकिन हम अपने काही पगते चर जाते हैं। जिनगी भर ऐसा ही चरता है और आसिर म दुस क घाव के अतिरिक्त हमारी कोइ उप निहा होती । घाव ही घाव रह जात हैं। इतना हम जानत है कि अधम अमगर है और अवम का मतत्व समझ लेनादूमरे में सुख पाा को आयामा । दुख हो अमगर है। और कोई समगल नहीं। जब भी दुय मिले ता जाप जानना कि आपन दूसर से कहा सुख पाना चाहा था। भार म अपने शरीर से ही गुम पाना चाहूँ ता भी मुये दुस ही मिलेगा--वर वामारी आयगी गरीर माण होगा चूना होगा परसा मरगा। यह शरीर जो इतना निनट मारम हाता है, पराया है। महावीर कहत यदि शिसस भी दुस मिल, जानना कि वह और है वह तुम नहा हो। (८) मुस अपरिजित है, क्याकि हमारा सारा परिचय 'पुर । ह दूसरे से
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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