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________________ २४० महावीर : परिचय और वाणी सुनने के पहले प्रशिक्षण से, ध्यान की प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता था, ताकि आपका वाचाल मन शान्त हो जाय और आपकी गहन आत्मा महावीर के सामने आ जाय । संवाद हो सके उस आत्मा से । इसलिए महावीर की वाणी को पांच सौ वर्ष तक फिर लिसा नही गया । तब तक लिया नहीं गया, जब तक ऐसे लोग मौजूद थे जोम हावीर के शरीर के गिर जाने ने बाद मी महावीर के सन्देश लेने में समर्थ थे । जव ऐसे लोग भी समाप्त होने लगे तब ववराहट फैली और तब महावीर वाणी को सगृहीत करने की कोशिश की गई । इसलिए जैनो का एक वर्ग - दिगम्बरमहावीर की किसी भी वाणी को विश्वसनीय नहीं मानता। उनका कहना है कि चूंकि वह उन लोगो के द्वारा सगृहीत हुई है जो दुविधा में पड गए थे, इसलिए वह प्रामाणिक नही कही जा सकती । श्वेताम्बरो के पास भी जो शास्त्र हैं, वे भी पूर्ण नहीं है । लेकिन महावीर की पूरी वाणी को कभी भी पुन पाया जा सकता है। उसके पाने का ढंग यह नही है कि महावीर के ऊपर किसी गई किताबो मे उसे सोना जाय । उसके पाने का बस एक ही रास्ता है । ऐसा ग्रुप, ऐसा स्कूल कायम किया जाय जिसमे थोडे-से लोग, जो चेतना को गहराई तक ले जा सके, महावीर से आज भी सम्बन्ध स्थापित कर सके । महावीर ने कहा है कि वही धर्म उत्तम है जो तुम केवली से सम्बन्धित होकर जान सको, बीच मे शास्त्र से सम्बन्धित होकर नहीं । केवली से कभी भी सम्वन्धित हुआ जा सकता है । शास्त्र बाजार मे मिल जाते हैं, किन्तु केवली से सम्बन्धित होना हो तो वडी गहरी कीमत चुकानी पड़ती है । स्वय के भीतर बहुत कुछ रूपान्तरित करना पडता है। महावीर कहते थे, विना कीमत चुकाए कुछ भी नही मिलता और जितनी बडी चीज पानी हो, उतनी ही बड़ी कीमत चुकानी पडती है । इसलिए जब वे बार-बार कहते है कि अरिहत उत्तम है, सिद्ध उत्तम हैं, साधु उत्तम है, केवली - प्ररूपित धर्म उत्तम है, तब वे यह कह रहे हे कि इतने उत्तम को पाने के लिए सब कुछ निछावर करने की तैयारी रखना, सव-कुछ खोना पडेगा, स्वय को भी । जब भी कोई स्वय को खोने को तैयार होता है तब वह केवलीप्ररूपित धर्म से सीधे सयुक्त हो जाता है । वही धर्म जो जाननेवाले से सीधे मिलता हो अथवा विना मध्यस्थ के प्राप्त होता हो, श्रेष्ठ है । 不過全
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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