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________________ महायोर परिचय और पाणी १८७ नाम साज लिया है वसे ही हमने 'मैं' की खोज कर ली है। हम पदा तो अनाम ही हात हैं, पर समाज हम नाम दे देता है जा जिन्दगी भर बना रहता है। रामतीर अमरीका म थे। कुछ लोगा ने उह गालिया दी तावे हंसते हुए घर सौट आए। जव उनके मिना को पता चला तो बहुत नाराज हुए। रामतीय न वहा, मुझे याई गारी दता तो मैं कोई जवाब देता। व राग राम को गाली द रह थ। राम मे अपना यया रेना देशा? इस गाम के मिना भी ता में हो सकता था। जब ये राम का गालिया दे रहे थे तब हम भी भीतर ही भीतर मुश हो रह 4 कि देत्रो, राम को क्मी गालिया पड रही हैं । बनागे राम तो गाली पडेगी। उहाँने माम दिया, उहाने ही गाली दी । नाम मी उनवा गाली मी उनवी। हम तो वाहर हैं । - - वह दूसरा भी यूटा है और यह मैं ? मेरा यह 'मैं' भी झूठा है। य दोना झूट एर साय जिना रहत हैं। जिस दिन दूसरा गिरता है उसी दिन 'मैं गिर जाता है। 'मैं आर तू के गिर जान से जो शेष रह जाता है यह अहिंसा है। मैं यह नहीं पहता कि आप 'म' शब्द का उपयोग ही नहीं वरें। वरना ही पड़ेगा। महावीर ने भी किया है, लेकिन तब वह गाद है भापा का ऐल है । जब वह अस्तित्व नही है तब उसे सिफ एक श द ही मानना चाहिए। ध्यान रहे कि इस 'मैं' और 'तू' के बीच जा उपद्रव पैदा हुआ है, वही हिसा है। दो झूठा ये बीच जो भी होगा, वह उपद्रव ही होगा। अहिंसा तो एव है, वितु हिंसाएँ अनन्त ह । य सारी की सारी हिंसाएँ निकलती है एक ही करने से-~~में और तू के परन से, आत्म ज्ञान के हारने से। महावीर से अगर पोइ पूछे हि अहिंसा क्या है, तो वे कहेंगे जात्मनान । हिंसा क्या है तो य पहेंगे जात्म मान अपन कोही न जानना हिंसा है। यह बनीव बात है हम तो समयत ५ कि दूसरा या दुस देना हिंसा है और सुम देना अहिंसा । रेसिध्यान रहे दूसरे का चाह सुख दो या रस, हर हात म दुस ही पहुंचता है । दा की मर आवाधाएँ व्यच हा जाती हैं क्यापि दार वा गुम दिया ही नहीं जा सकता। सुस सिफ स्वय को दिया जा सकता है । पिरा पति ने रिस पत्नी को पद सुग दिया? निरा पत्नी ने रिस पनि या पब सुख दिया? पहुँचाते समो मुश है, पहुंचता साम। असल म दूगर को हम सुरा पहुंचा ही नहीं सकते, दूसरे में गाय हम अहिराव हा ही नही परत । हम दूसर का पूर भी फेंर पर मारेंग ता जब यह रगगा, तव पायर हो जायगा। ध्यामि नगवान की मूति पर चढ़ाए गए पूरी हिंसा की सबात है। उनम भी दूसर मी स्वीति है। नका पर नहीं है जिसन भगवान की मूर्ति पर पड़ाए । मनन वह है जा पाना निर और frसने रान के सिवा पुगी
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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