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________________ महावीर परिचय और वाणी जना की घोषणा के लिए महावीर को कहना पटा कि ईश्वर नही है। साधारण भास्तिव की धारणा है कि परमात्मा नियामा है, नियन्ता है, सप्टा है। यदि ऐसी बात है तो मनुष्य की स्वतत्रता सत्म हा गई। मगर गहरे आस्तिष की दृष्टि म श्वर स्वनमता है। कण-यण में याप्त जो परम म्यतमता है, उसके समग्र का नाम ही परमात्मा है। जगर हम इस समय पाएँ तो फिर पापी को दोप देने का कोई कारण नहीं रह जाता। एतना ही कहना काफी होता है कि तूने स्वतमता को जिस ढग से चुना है वह दुख लायगा । इसस ज्यादा कुछ भी कहना अयुक्त है। मैं कहता हूँ कि स्वतत्रता जगत् की मौरिक स्थिति है। दो गइ स्वतत्रता स्वतत्रता नहीं होती। किसी ने भी स्वतत्रता नही दी और न विसी ने स्वतत्रता री। स्व तयता लेनी तभी पडती है जब कि परतनता हो। जगर स्वतत्रता है तो उसे न कोई दता है, न कोई लेना है । वह जगत का स्वरूप है, वह वस्तुस्थिति है, वह स्वभाव है। काइ उसको दुख के लिए उपयोग करता है पर कोई मुख के लिए उपयोग करता है कर। लोग मुयस निरन्तर पूछते हैं कि थाप लागा का इतना समयाते हैं, इससे क्या हुआ? तो में कहता हूँ कि यह प्रश्न ठीव नहा है। मरा काम था चिलाना । लागाने मुझसे कहा भी न था कि चिरलाओ। यह मेरी मौज थी, यह मेरा चुनाव था। यह उनकी मौज थी कि उहान सुना या उनकी मौज थी कि नहीं सुना । यह उनकी मौत थी कि उहोंने सुना और अनसुना कर दिया। इस बात में मैं भी स्वतत्र था और व मी स्वतत्र थे। हम सब अपनी-अपनी स्वतत्रता म जी रह हैं, इसलिए वरी मौज है। और जीवन बड़ा रममय है । कही काई राकनवाला नहीं है कहा कोई मालिक नहीं है। हम ही मालिक ह हम ही निर्णायक । इतना ही समय मे आ जाय तो फिर समयने का क्या शेष रह जाता है। मेरी दृष्टि म प्रारध भी जीवा का नियामक नहीं है। अपने दिए हुए निणय ही प्रार व वन जात ह । आज तुम जा करोग, वही निणय बनगा और फिर एक तरह का प्रार घ निर्मित हागा उमम । बहुत गौर स देखें तो मोल भी एर प्रारब्ध है। जा आदमी स्वतत्र होने का निणय पारता है मत म वही मुक्त हो जाता है। ससार भी एक प्रारध है। मनुष्य द्वारा किए गए निणय के फल को ही प्रारर बहते ह । सुख के खोजी को महावीर ने स्वग वा खोजी कहा है। आन द का खोजी, उनकी दष्टि म, मोक्ष का खोजी है। दुख का सोजी नरक या सोजी है सुप या खोजी स्वग का खोजी । स्वग मोक्ष नहीं है। महावीर के पहले बहुत यापर धारणा यहायो कि रवग परम उपलब्धि है । सब सुख मिल गया तो परम उपलधि हो गई। लेकिन मनानानिक रीति से समझना चाहिए कि जहाँ सुरा होगा, वहाँ दुख अनिदाय होगा । जहा प्रवास होगा वहाँ अधकार अनिवाय है । जब हम दुग मे हाते ह तब सुख नीचे छिपा होता है और प्रतिपर भाशा दिय जाता है कि अभी प्रकट होता हूँ । लेकिन दोना ही चीजें
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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