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________________ महावीर परिचय और वाणी फूर सूधनेवाले का सम्मान दनेवाला भी स्वस्थ है। एक ऐसा समाज चाहिए जिसमें सुख का समादर हो दुख का अनादर हो । लेकिन हुआ उलटा है और हमने उन लागा को भी दुसी लागा पी श्रेणी म रख दिया है जो सबसे ज्यारा सुनी लोग थे । वस्तुत महावीर-जस व्यक्ति को सर्वाधिक सुसी लोगा म गिना जाना चाहिए। लेक्नि हमारी त्याग की दृष्टि ने उनके सारे सुख और मानद को क्षीण कर दिया । हमने यह बहना शुरु किया कि यह आदमी इनने बानन्द में इसलिए है कि इसने इतना इतना त्याग दिया। लेकिन बात उल्टी है । यह आदमी इतने आन द म है कि इससे इतना त्याग हो गया। त्याग हो जाना इतने आनद म होने का परिणाम है। मैं छोडन की भापा के ही विरोध म है। बडा घर पाया, छोटा घर छूट गया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं वि व छोटे घर के दुश्मन हो गए । इसका मतलब सिफ यह है कि अब छोट घर म रहना असम्भव हा गया। जब बडा घर मिल गया तो छोटा घर उसका हिस्सा हो गया । भोग भी भ्राति ला सरता है। प्रत्येक चीज घ्रान्ति ला सकती है। फिर भी अगर चुनाव करना हो तो मैं कहूँगा कि भाग ही ठीक है क्योकि वह जीवन के स्वस्य, सहज और सरल होने का प्रतीक है। यह भी बडे मो की बात है कि जो आदमी भोगन चलेगा उससे त्याग धीरे धीर अनिवाय हो जायेंगे और वह जैसे-जसे भोग म उतरेगा वस-वैसे बने भोग की सम्भावनाएँ प्रस्ट हागो । लेबिन जो आदमी त्याग करने चरेगा, उससे पुराने भाग की सम्भावनाएँ छिा जायगी, नए भोग की सम्भावनाएं प्रपट नहा हागी और यह आदमी सूखता चला जायगा। तो मैं कह रहा हूँ कि माग अन्तत त्याग बन जाता है, लेकिन त्याग अन्तत भोग नहा बनवा । एक वेश्या भी ग्रहाचय का उपलब्ध हो सकती है, रेविन जो बरदस्ती ब्रह्मचय थोपरर साध्वी वन गा है उसका ब्रह्मचय का उपल ध होना बहुत मुश्विर। वेश्या अपन निरन्तर के अनुभव म ब्रह्मचय की दिशा में गतिमान होती है रविन थोपा हुआ ब्रह्मचय निरन्तर यासना की दिशा म निमार परता है। महावीर वे जब बाल बढ जात थे तो उन्हें उनाड देते थे। इसका कारण यह पा पि व अपने पारा उस्तरा भी हा रखत। जिस व्यक्ति । सारे जीवन का अपना ही मान लिया है वह यह भी समझ गया है कि बल के लिए कौन योय होता पिरे, कर सुवह जो होगा, होगा। महावीर के लिए सरलतम यही था विवाल उसाद लिए जाय । सार को सार म घर गाय तो फिर साइ दिए जाय भार यात्रा परती रह। उस्तरा-जसा हा सामान भी क्या ढाया जाय ? एस पाप वो दोन वी जरुरत ? सामान पो पाटकर गोम सुरक्षित हान की पामना हाता है जो महावार मन थी। महिए व भागारन म रत है। सुरक्षा पा मोह गाय नहीं पुछ गाया भाव की परन्त पा एक यग है जा बार
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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