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________________ १४२ महागेर : परिचय और वाणी चक्रवत् घूमता हो, वहाँ सिर्फ आत्मा की गति को चक्रीय न माना जाय, यह नियम का खडन मालूम पडता है। वीज वृक्ष बनता है, फिर वृक्ष से वीज मा जाते है। फिर बीज वृक्ष बनता है, फिर वृक्ष मे वीज आ जाते है। किसी वैज्ञानिक से पूछा गया था कि मुर्गी और अडे मे कौन पहले है। वैज्ञानिक ने उत्तर दिया कि पहले-पीछे का तो सवाल ही नहीं है, कारण कि मुर्गी और अडा दो चीजे नहीं हैं। तव प्रश्न उठता है कि मर्गी है क्या ? उत्तर है कि मुर्गी है अडे का रास्ता या यो कहे कि अंडा है मुर्गी का रास्ता, मुर्गी पैदा करने के लिए। घडी के काँटे की तरह मभी चीजें घूम रही है। इसलिए आत्मा इस नियम का अपवाद कैसे हो सकती है? अपवाद हो सकती है। वस्तुत मुक्त आत्मा एक अनूठी घटना है, सामान्य घटना नही। इमलिए सामान्य नियम लागू नहीं हो सकते । असल मे जो आत्माएँ चक्र के बाहर कूद जाती है वे ही मुक्तात्मा कहलाती हैं। नहीं तो उन्हें मुक्त कहने का कोई मतलव नहीं। ससार का मतलव हे-जो घूम रहा है, घूमता ही रहता है। मुक्त का अर्थ है जो इस घूमने के वाहर छलाग लगा गया है। मुक्त को अगर हम फिर चक्रीय गति मे रख लेते है तो मुक्ति व्यर्थ हो गई। अगर आत्मा मोक्ष से निगोद को वापस लौट आती है तो वे सव-के-सव पागल है जो मुक्त होने की कोशिश करते है। अगर सवको घूमते ही रहना है तो मोक्ष और मुक्ति की वात व्यर्थ हो जाती है। हाँ, जैसा मैंने कहा, एक बार मुक्तात्मा भी अपनी इच्छा से उस चक्र मे लौट आ सकती है। परन्तु चक्र पर बैठी हुई ऐसी आत्मा चक्र के साथ घूमती नहीं । अव उसके लिए घूमने का कोई मतलव नही । वह हमारे बाजार मे खडी होगी भी तो उसे बाजार का हिस्सा होना नहीं पड़ता। मुक्त व्यक्ति हमारे बीच भी खडा होगा, लेकिन ठीक हमारे बीच नही होगा । वह होगा हमारे बीच और हम से बिलकुल अलग। कही उससे हमारा मेल होगा और कही नही। वह कुछ और ही तरह का आदमी होगा। आवागमन से छूटने की जो कामना है वह उन लोगो को उठी है जिन्हे इसे घूमते हुए चक्र की व्यर्थता दिखाई पड गई। उन्होने देखा कि जन्मो-जन्मो से एक-सा घूमना हो रहा है, हम घूमते चले जा रहे है और इससे छलॉग लगाने का खयाल नही आता। छलाँग लग सकती है। अगर चाँद पर जाना है तो जमीन की कशिश से छूटना ही होगा। यदि जीवन के बाहर जाना है तो किसी-न-किसी रूप मे वासना के वाहर निकलना होगा। वासना भी एक प्रकार की कशिश ही है जो हमे ऊपर उठने नही देती। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर जो तृष्णा और वासना है वह हमे अस्थिर रखती है और कहती है-वह लाओ, वह पाओ, वह बन जाओ। वह चक्र के भीतर इशारे करती है और कहती है-धन कमाओ, यश कमाओ, ज्यादा उम्र बनाओ। जो व्यक्ति एक क्षण भी वासना के बाहर हो गया वह अन्तरिक्ष मे यात्रा कर गया, उस अन्तरिक्ष मे जो हमारे भीतर है। वह जीवन के चक्र के बाहर छलॉग लगा
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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