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________________ १३४ महावीर : परिचय और वाणी है, अपने प्राण है और वह अनन्त काल तक प्रतीक्षा कर सकता है। मुझे चिन्ता नही कि लोग मेरी वातो को माने ही । जिस व्यक्ति को ऐसी चिन्ता होती है वह कभी सत्य बोल ही नही सकता । जैसा हमारा समाज है, उसके जीने के लिए असत्य अनिवार्य-सा हो गया है । यदि दुःख, पीडा, शोपण, अहकार, द्वेप आदि से भरे हुए इस समाज को जिलाना हो तो वह असत्य पर ही जी सकता है। अगर ऐसे समाज को बदल कर प्रेम से भरे हुए एक नए समाज की स्थापना करनी हो जिसमे ईर्ष्या-द्वेप, घृणा-महत्त्वाकाक्षा आदि न हो तो फिर इसकी नीव सत्य पर कायम करनी होगी। सभी चाहते है कि आनन्द मिले, लेकिन वे स्वय को बदलना नही चाहते । वे चाहते है कि प्रकाश मिले, लेकिन उन्हे ऑख न खोलनी पडे। याद रहे कि महत्त्वाकाक्षी चित्त कभी भी आनन्दित नही हो सकता। उसे जो भी मिल जायगा उससे उसकी तृप्ति न होगी और जो नहीं मिलेगा उसके लिए वह पीडित रहेगा। महत्त्वाकाक्षा और आनन्द मे विरोध है। प्रेम देना कोई भी नही चाहता, प्रेम मॉगना चाहता है। यह भी ध्यान रहे कि जो आदमी प्रेम देने की कला सीख जाता है, वह कभी मॉगता ही नही। मॉगता सिर्फ वही है जो दे नही पाता। हमारी यही कठिनाई है कि हम हमेशा से यही चाहते रहे है कि आनन्द हो, शान्ति हो, प्रेम हो, लेकिन जो हम करते है वह इनका एकदम उलटा होता है। उससे न शान्ति हो सकती है, न प्रेम और न आनन्द । प्रत्येक व्यक्ति द्वेष मे जी रहा है, ईर्ष्या मे जी रहा है और चाहता है कि उसे आनन्द मिले। मगर ईर्ष्यालु चित्त कभी आनन्द नही पा सकता। ईर्ष्या और आनन्द परस्पर विरोधी अनुभूतियां है। उनके विरोध के प्रति सजग हो जाना ही साधना की शुरुआत है। जैसे ही कोई इस बोध को उपलब्ध हो जाता है कि ईर्ष्या से भरे हुए चित्त मे आनन्द का वास नही हो सकता, वैसे ही क्रान्ति शुरू हो जाती है, क्योकि विरोध दिख जाए तो फिर उसमे जीना मुश्किल है। ____ अन्त मे एक और प्रश्न पर विचार करे। इसमे सन्देह नही कि जिस प्रकार आसक्ति अथवा राग कर्म-बन्ध का कारण है उसी प्रकार द्वेष और वृणा भी। तब महावीर ने ससार, शरीर आदि के प्रति घृणा का भाव पैदा करके ससार त्याग का उपदेश क्यो दिया ? राग-द्वेप दोनो एक ही तरह के उपद्रव के कारण है। राग का ही उलटा द्वेप हैराग शीर्षासन करता हुआ द्वेष है। दोनो फाँसते है, दोनो बाँध लेते है । मित्र भी वाँचता है, शत्रु भी बांधता है । न तो हम मित्र को भूल पाते है और न शत्रु को। कभी-कभी तो शत्रु के मरने से हमारा वल ही खो जाता है, क्योकि वल उसके विरोध मे वनकर आता है। लेकिन जिसे बधन ही दुख हो गया, वह न मित्र
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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