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________________ महावीर परिचय और वाणी १३३ उलटी होती । याद रहे कि स्त्री की कामुकता उसके पूरे शरीर में व्याप्त होती है । चूँकि पुरुष की कामुकता मिफ नाम केद्र के पास होता है इसलिए उसे सिफ सम्भाग से आनन्द आता है । अगर पुरुष स्त्री के पर भी छू ले तो स्त्री म काम को सम्भा वना जाग्रत हो सकती है । महावीर की इस मनोवैज्ञानिक व्यवस्था की एमी व्याख्या किसी और न नही वी । अन तब के व्याख्याकार यही कहते रह हैं कि महावीर की इस यवस्था वा कारण यह है कि पुरुष की यानि ऊँची है और स्नी वा नीची, इसलिए स्त्री ही पुरुष यानि को नमस्कार करे । महावीर ने मनुष्य के चार वर्गीकरण किए हैं-श्रावक, धाविका, साधु, साध्वी । उनकी माधना पद्धति श्रावन से शुरू होती है या श्राविका से । कोई सीधे ही एक्दम साधु नही हो सकता । पहले उन श्रावक बनना होगा। साधना, ध्यान और सामायिक श्रावका के लिए हैं। जब वे इनस गुजर जाएँ तव व साधु-जीवन भ प्रवेश कर सकते हैं । महावीर किसी को पहले ही माधु की दीक्षा नहीं देते। यह भी आवश्यक नही कोई साधु बने हो । श्रावक रहवर भी मोक्ष पाया जा सकता है । सिर महावीर ने ही यह कहने की हिम्मत की है। साधु होना अनिवाय नहीं है । मान लीजिए कि आप गहरे ध्यान में गए और आपका वस्त्र पहनना ठीक मालूम पडता है तो आप वस्त्र पहनना जारी रखें। यदि वस्त्र अनावश्यक प्रतीत हा तो छोड़ दें, अयथा नही । अयान- महावीर की आस्था है कि घर में रहकर ही यदि कोई ध्यानस्य हो जाता है तो वह घर न छोडे । अगर उसे लगता है कि घर व्यय हैं तो वह उसे छोड दे । परम्परा से प्रामाणिक एवं निर्णीत' महावीर के जीवन का यह बोद्धिष एव तथ्य पूर्ण विश्लेषण समाज को स्वीकृत हो यह आवश्यक नहा समाज वो मेरी बातें स्वीकृत हो इसका मुये ध्यान नही । समाज वा स्वोक्त हान से ही यह विश्लेषण ठीक हो सकता है ऐसी भी कोई बात नहा । प्राथमिक रूप से जो में कह रहा हूँ समाज से उनकी अम्वीकृति को ही अधिक सम्भावना है लेकिन अगर जा में वह रहा हू वह बुद्धिमत्ता पूर्ण, वनानिक एवं तथ्यगत है तो अस्वाकृति को टूटना पडेगा -- अस्वीकृति जात नहा सवना । और अगर यह तथ्यपूर्ण नहा है अवानिव ह ता अस्वीकृति जीत नायगी । मैं इस पर ध्यान नहीं देता कि मेरी जाता का कोन स्वीकार करता है कोन अस्वीकार । मुये जो सय मालूम पडता है, वह मैं वह देता हूँ। अगर वह सत्य होगा ता भाज नहा वर स्वीवार पर लिया जायगा । असत्य का वर्षो तक चले तो भी वह असत्य ही है। सत्य मिलन चल पाए ता भी वह मत्य है । असत्य स्वीकृति म जाता है, किन्तु सत्य स्वीकृति को परवा नही परता । वह अस्वीकृति म जो लेता है क्यापि उस पास अपने पर है, अपना सांस
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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