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________________ १२८ महावीर : परिचय और वाणी सीमा है मनुष्य की । उस सीमा के बाहर मनुष्य छलांग भर लगा जाय तो फिर परमात्मा की कशिश उसे खीच लेती है । उसे कुछ करना नही पडता । उस सीमा के बाद कोई छोटा-बडा नही रह जाता । फिर सब पर बराबर कशिग काम करती है । उसी सीमा को मैं कहता हूँ विचार। जिस दिन आदमी विचार से निर्विचार मे कूद जाता है उस दिन के बाद उसके लिए कोई छोटा-बडा नही रह जाता। हमारे सब भेद-भाव कदने के पहले के भेदभाव है । महावीर ने जो छलांग लगाई है वही कृष्ण की छलांग है, वही क्राइस्ट की । इसलिए अहिसा का कोई विकास नही होता । महावीर ने इसका कोई विकास किया हो, इस भूल मे भी नही पडना चाहिए । अनुभव की अभिव्यक्ति मे भेद है, अहिंसा का अनुभव समान है । ऐसा कुछ नही हे कि महावीर ने पहली वार अहिंसा का अनुभव किया हो । लाखो लोगो ने पहले भी किया था और लाखों लोग पीछे करेगे । यह अनुभव किसी की बपौती नही है । परिवर्तनशील जगत् में विकास होता है । शाश्वत, सनातन अन्तरात्मा के जगत् में विकास नही होता । महावीरजैसे व्यक्ति चाक की कील के निकट पहुँच गए है -- जहा कोई लहर नही, कोई तरग नही, जहाँ कभी विकास नही होता, गति नही होती। याद रहे - कील नही चलती, इसलिए चाक चल पाता है । जो कील का सहारा पकड़ लेता है, वह कभी चूर नही होता । अस्तित्व के विकासचक्र की कील का ही नाम परमात्मा, धर्म या आत्मा है । आप कहते है कि अहिंसक व्यक्ति का भी विरोधी पैदा होना अहिंसा के विषय मे सदेह पैदा करता है । ऐसी धारणा रही है कि जो अहिसक है उसका कोई विरोधी नही होता । जिसके मन मे द्वेष, विरोध, घृणा, हिंसा न हो, उसके प्रति घृणा, हिंसा और द्वेष कैसे हो सकता है ? ऊपर से यह बात बहुत सीवी और साफ मालूम पडती है | लेकिन जीवन ज्यादा जटिल है, सिद्धान्त जितने सरल होते है जीवन उतना सरल नही है । सच तो यह है कि पूर्ण अहिंसक व्यक्ति के विरोधी पैदा होने की सम्भावना अधिक है । उसके कई कारण है । पहला कारण तो यह है कि चूंकि हम सब हिंसक है, इसलिए हिंसकों से हमारी ताल-मेल बैठ जाता है, चूंकि अहिसक व्यक्ति हमारे वीच अजनबी है, इसलिए उसे वरदाश्त करना भी मुश्किल है | अहिंसक व्यक्ति की मौजूदगी मे हम इतने ज्यादा निन्दित प्रतीत होने लगते है कि इसका दला लिये बिना नही रह सकते । पूर्ण अहिंसक व्यक्ति हिसक व्यक्ति के मन में, अनजाने ही, तीव्र वदले का भावना पैदा करता है । 1 महावीर के लाखो विरोधी रहे होगे । यह स्वाभाविक है । लेकिन इससे उनकी अहिंसा पर सन्देह नही होता । इससे खबर मिलती है कि आदमी पूर्ण अजनवी था,
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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