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________________ महावीर परिचय और वाणी १२३ अस्तित्व अनादि है, अन त है, सनाता है। लेकिन रूपातरण रोज होता है। कर जो रेत यी वही आज पहाड है, आज जो पहाड है, वान जाने वही पल रत म परिवर्तित हो जाय । लेकिन होना नही मिटेगा। रेत में भी वही था, पहाट मे भी यही होगा। जस्तित्व का अस्तित्व होना उतना ही असम्भव है जितना अनस्तित्व वाजस्तिव होना । इसलिए महावीर ने अष्टा की धारणा ही नहीं मानी। उहान पहा कि जर सप्टि की तुरमात ही नहीं होती तो शुरुआत करनेवाले को धारणा को बीच मे लाना ठीक नही । जन शुरूमान ही नहीं होती तो नष्टा की क्या जरूरत यह वडे साहस की बात थी उन दिना । उहाने पहा- सप्टि है, पर सप्टा नहीं, ययानि अगर सप्टा है तो प्रारम्भ की बात माननी पडेगी। यदि स्रष्टा है तो भी गय स उसका प्रारम्भ नहीं हो सरता। और फिर मजे की बात यह है रि अगर मष्टा था तो फिर गूय वहना यय है। मास्तिका का कहना है कि यरि वाई चोजा को बनाने वाला है तो परमात्मा मा होना चाहिए। लेमिनास्तिाने एक गहरा सवाल किया--अगर चीजा वा बनानवाला काई है तो फिर परमात्मा को नावाला मी हाना चाहिए। और पिर उस बनानवारे का बनानेवाला फिर उमका, फिर उमगा। इस प्रकार एव अतहान विवाद लना हो जाएगा। इसलिए, महावीर कहते हैं Pि आस्तिा भूल म है और मागी भूलथे वारण ही वह नास्तिरा के प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाता। __ स्वय महावीर परम आस्तिक है । लेविन व महत है वि बनानवाले को बीच मे ने को जररत नहीं है । अस्तित्व पाप्त है। कोई बनानेवाला रही है। हा सपना है कि रमवा पता चल जाय कि पच्ची का प्रारम्भ क्व हुआ और इसका अत पर मागा लेकिन पध्वी जीवन नहा है, जीवन का एक रूप है। इसी प्रकार में भी जीवन नही हूँ जीवन कासिफ एक रूप हूँ। जगत जा है गहराईम, वह मदा से है । उसरे उपर की लहर आई हैं गई हैं बाली है । भाएंगी, जाएंगी, बदलेंगी। परतु । गर राइ म है जो के म है, वह सदा म है और सदा रहेगा। एसा ही समझ ले नि अस्तिव ए सागर है, उस पर लहर उगती हैं आती हैं, जाती हैं लान पूरे अम्ति प का भी प्रारम्भ हुआ हो, न एमा है और न हो सकता है। इसी यात या म चाहता इस प्रकार समा सकते हैं। हम यहां लाडो के तपता पर चठे हुए है। सार हमस पूछ गरता है कि आपका मिसन सभार र ? हा पहा ही ये राम्न । फिर यह पूर साता है ये तम्मा का पौन समार हुए है ? हम पहेंगे--मा। यह पूछ सकता है जमीन या पोरामाते हुए है? हम उत्तर दगे-पहा उपग्रहा या वारपण । पिर वह पूछ सा है पिग्रहासाग्रहा या या समारहा है तो शायद हम योर गोजा ले जाय । अतः यदि कोई पूरि ग गमग्रयो, म पूरे को निगम मनी ग्रह अग्रह आ गई यौन मार TV है al
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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