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________________ सप्तम अध्याय अस्तित्व और अहिसा एगो ह नत्थि मे कोइ, नामन्नस्स कस्सइ । एव अदीण-मणसो, अप्पाणमणु सासइ ।' महावीर उन थोडे से चिन्तको मे है जिन्होने जीवन के प्रारम्भ की बात को स्वीकार नहीं किया। उनकी दृष्टि मे अस्तित्व का कोई प्रारम्भ नहीं हो सकता। अस्तित्व सदा से है और सदा रहेगा। प्रारम्भ की धारणा मारी नासमझी से पैदा होती है। हमारा भी कोई प्रारम्भ नही, कोई अन्त नही । जब कोई चीज बनती और मिटती है तो हमे ऐसा प्रतीत होता है कि जो भी बनता हे वह मिटता है । लेकिन बनना ओर मिटना प्रारम्भ और अन्त का पर्याय नही है, क्योकि जो चीज बनती है, वह बनने के पहले किसी दूसरे रूप में मौजूद होती है। इसी तरह जो चीज मिटती है वह मिटने के बाद किसी दूसरे रूप में मौजूद हो जाती है । महावीर कहते है कि जीवन मे सिर्फ रूपान्तरण होता है। प्रारम्भ असम्भव है, क्योकि अगर हम यह माने कि कभी प्रारम्भ हुआ तो यह भी मानना पडेगा कि उसके पहले कुछ भी न था। फिर प्रारम्भ कैसे होगा ? अगर उसके पहले कुछ भी न हो तो प्रारम्भ होने का उपाय भी नही। अगर हम यह मान ले कि कुछ भी न था-न तो समय था और न स्थान ही-तो प्रारम्भ कैसे हुआ ? प्रारम्भ होने के लिए कम से कम समय तो पहले चाहिए ही ताकि प्रारम्भ हो सके। और अगर समय पहले है, स्थान पहले है तो सव पहले हो गया। इस जगत् मे मौलिक रूप से दो ही तत्त्व है--समय और स्थान । महावीर की दृष्टि मे प्रारम्भ की बात हमारी नासमझी से उठी है। अस्तित्व का कभी कोई प्रारम्भ नहीं हुआ और, याद रहे, जिसका कभी कोई प्रारम्भ नही हुआ उसका कभी अन्त भी नही हो सकता, क्योकि अन्त होने का मतलब होगा कि एक दिन कुछ भी न बचे । यह कैसे होगा? १. 'मै अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और मैं किसी दूसरे का नही हूँ,-इस प्रकार अदीन मन से विचारता हुआ आत्मा को समझाये (समझाना चाहिए)।
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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