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________________ ९६ महावीर : परिचय और वाणी गिराओ तो उसके पैर नही टूटते, किमी दूसरे व्यक्ति को गिराओ तो उसके पैर टूट जाते है । प्रहलाद की कथा पक्षपात की कथा है । उसमे अपने आदमी की फिक्र की जा रही है और नियम के अपवाद बनाए जा रहे हैं । महावीर कहते है कि अगर प्रहलाद जैसे अपवाद है तो फिर धर्म नहीं हो सकता । धर्म का आधार नमानता है. नियम है जो भगवान के भक्तो पर उसी बेरहमी से लागू होता है जिस वेरहमी से उन लोगो पर जो उसके भक्त नही है । यदि अपवाद की बात मान ली जाय तो कभी ऐसा भी हो सकता है कि क्षय के कीटाणु किसी दवा से न मरे । हो सकता है कि `क्षय के कीटाणु भी प्रह्लाद की तरह भगवान् के भक्त हो और कोई दवा काम न करे । यदि धर्म हे तो नियम है और अगर नियम है तो नियन्ता में बाधा पडेगी । इसलिए महावीर नियम के पक्ष मे नियन्ता को विदा कर देते है । वे कहते है कि नियम काफी है और नियम असड है । प्रार्थना, पूजा उनसे हमारी रक्षा नही कर सकती । नियम से बचने का एक ही उपाय है कि नियम को समझ लो । यह जान लो कि आग में हाथ डालने से हाथ जलता है, इसलिए हाथ मत डालो | महावीर न तो चार्वाक को मानते है और न नियन्ता के माननेवालो को । चार्वाक नियम को तोडकर अव्यवस्था पैदा करता है और नियन्ता के माननेवाले नियम के ऊपर किसी नियन्ता को स्थापित कर अव्यवस्था पैदा करते हैं । महावीर पूछते हैं कि यह भगवान् नियम के अन्तर्गत चलता है या नही ? अगर नियम के अन्तर्गत चलता है तो उसकी जरूरत क्या है ? यानी - अगर भगवान् आग मे हाथ डालेगा तो उसका हाथ जलेगा कि नहीं ? अगर जलता है तो वह भी वैसा ही है जैसा हम है, अगर नही जलता तो ऐसा भगवान् खतरनाक है । यदि हम उससे दोस्ती करेंगे तो आग मे हाथ भी डालेंगे और शीतल होने का उपाय भी कर लेंगे । इसलिए महावीर कहते है कि नियम को न मानना अवैज्ञानिक है और नियन्ता की स्वीकृति नियम मे वाचा डालती है । विज्ञान कहता है कि किसी भगवान् से हमे कुछ लेना-देना नही, हम तो प्रकृति के नियम खोजते है । ठीक यही बात ढाई हजार साल पहले महावीर ने चेतना के जगत् मे कही थी। उनके अनुसार नियम शाश्वत, अखड और अपरिवर्तनीय है । उस अपरिवर्तनीय नियम पर ही धर्म का विज्ञान खड़ा है । यह असम्भव ही है कि एक कर्म अभी हो और उसका फल अगले जन्म मे मिले । फल इसी कर्म की श्रृंखला का हिस्सा होगा जो इसी कर्म के साथ मिलना शुरू हो जायगा । हम जो भी करते है उसे भोग लेते हैं । यदि मेरी अशान्ति पिछले जन्म के कर्मों का फल है तो मै इस अशान्ति को दूर नही कर सकता। इस प्रकार मै एकदम परतंत्र हो जाता हूँ और गुरुओ के पास जाकर शान्ति के उपाय खोजता हूँ । मगर सही वात यह है कि जो मैं अभी कर रहा हूँ उसे अनकिया करने की सामर्थ्य भी मुझमे है । अगर मैं आग मे हाथ डाल रहा हूँ और मेरा हाथ जल रहा है, और अगर मेरी मान्यता यह है कि
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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