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________________ ज्यों था त्यों ठहराया उपनिषद कहते हैं: अज्ञानी तो अंधकार में गिरता ही है, तथाकथित ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाता है। यह पंडितों के संबंध में कहा हआ है, महापंडितों के संबंध में। ये जो तोतों की तरह पंडित हैं--पोपटलाल--जो रटे जा रहे हैं, इनकी रटन कैसे बंद हो! बोधिधर्म हंसा सात दिन तक। उसके संगी-साथियों ने पूछा कि क्यों हंसते हो? उसने कहा, मैं इसलिए हंसता हूं कि मैं देखता था कि कौन जीतता है, मैं जीतता हूं कि मन जीतता है! मैंने भी कहा कि जब तक तुझे उधेड़बुन करना है करता रह, मैं तो देखता हूं दीवाल, तो दीवाल ही देखता रहूंगा। ऊब गया, थक गया मन, घबड़ा गया होगा। घबड़ा ही जाएगा। भाग खड़ा हुआ मन। बोधिधर्म ने कहा, कहां जाता है? अरे लौट आ! फिर नहीं लौटा। ध्यान की यही तो प्रक्रिया है: बैठ रहे। आंख बंद कर ली। बोधिधर्म ने सफेद दीवाल के सामने बैठ कर आंख बंद की। सफेद दीवाल को देखना आंख बंद करने जैसा ही है। मगर भूरिबाई की किताब दोनों के पार जाती है--सूफियों की किताब के भी, बोधिधर्म की दीवाल के भी। जब तुम आंख बंद करोगे, तो अंधेरा ही दिखाई पड़ेगा, वह काला होगा। आंख बंद की और चुप हुए तो पहले तो अंधेरा, अंधेरा ही अंधेरा! घबड़ाना मत। देखे ही चले जाना, देखे ही चले जाना, देखे ही चले जाना। धैर्य रखना। ऊबना मत। तुम मत ऊबना, मन ऊब जाए। और मन जिस दिन ऊब गया, टूट गया। तुमसे नाता टूट गया। और तत्क्षण प्रकाश हो जाता है। सब अंधकार तिरोहित हो जाता है। मन गया कि जो आवरण पड़ा था प्रकाश पर, वह हट गया। जैसे किसी ने चट्टान रख कर झरने को दबा दिया था; चट्टान हट गई, झरना फूट पड़ा। जैसे किसी ने दीए को बर्तन से ढांक दिया था; बर्तन उठ गया, रोशनी जगमगा उठी। दीवाली हो गई। भूरिबाई कुछ कहती नहीं थी। कोई उससे पूछने जाता था--क्या करें? तो वह ओठों पर अंगुली रख कर इशारा कर देती थी--चुप हो रहो, बस और कुछ करना नहीं। यही उसने इस सूत्र में कह दिया है-- चुप साधन चुप साध्या, चुप मा चुप्प समाय। चुप समझारी समझ है, समझे चुप हो जाय।। अगाध उसका मेरे प्रति प्रेम था--ऐसा कि मुझे भी मुश्किल में डाल देता था। भोजन करने में बैठता, तो भोजन करना मुश्किल, क्योंकि वह मेरे बगल में बैठती। और मेरी थाली की चीजें सरकने लगतीं, उठाने लगती वह। जो चीज भी मैं जरा-सी तोड़ कर चख लेता, वही गई, नदारद! घंटों लग जाते भोजन करने में, क्योंकि फिर लाओ। एक करोड़ तोड़ पात रोटी से कि रोटी गई, वह प्रसाद हो गई! वह खुद लेती उसमें से प्रसाद और फिर उसके भक्त बैठे रहते कतार में, सो वह बंट जाती रोटी। मैंने जरा-सा टुकड़ा सब्जी का लिया कि वह सब्जी की प्लेट गई! दो घंटे, तीन घंटे लग जाते। Page 37 of 255 http://www.oshoworld.com
SR No.009965
Book TitleJyo tha Tyo Thaharaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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