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________________ ज्यों था त्यों ठहराया करना हो करो, उसे कुछ पता नहीं। होश में किसी की अपेंडिक्स निकाल लो। जो करना हो करो, उसे कुछ पता नहीं। होश में किसी की अपेंडिक्स निकालोगे, तो आसान नहीं मामला। डाक्टर की गर्दन दबा देगा--लड़ने को, मरने को, मारने को राजी हो जाएगा--कि यह क्या कर रहे--मेरा पेट काट रहे! मेरे प्राण निकल रहे हैं! भागने लगेगा। पहले उसे बेहोश कर देते और यही प्रक्रिया मृत्यु की है। मरने के पहले अधिकतम लोग बेहोश हो जाते हैं--क्षण भर पहले, क्योंकि मृत्यु तो बड़े से बड़ा आपरेशन है। आत्मा शरीर से अलग की जाएगी। अपेंडिक्स क्या है! आत्मा का शरीर से अलग होना इससे बड़ी और पीड़ा की कोई बात क्या होगी! सत्तर-अस्सी-नब्बे साल दोनों का संग-साथ रहा। जुड़ गए, एक दूसरे में मिल गए, तादात्म्य हो गया। उस सारे तादात्म्य को छिन्न-भिन्न करना है। तो प्रकृति बेहोश कर देती है; सिर्फ कुछ बुद्धों को छोड़ कर। क्योंकि उनको बेहोश नहीं किया जा सकता। वे जागे ही जीते हैं, जागे ही सोते हैं, जागे ही मरते हैं। इसलिए मरते ही नहीं। क्योंकि जाग कर वे देखते रहे हैं--शरीर मर रहा है, मैं नहीं मर रहा हूं। मुस्कुराते रहते हैं। देखते रहते हैं कि शरीर छूट रहा है। लेकिन मैं शरीर नहीं हूं। मन विदा हो रहा है, लेकिन मैं मन नहीं हूं। वस्तुतः तो वे बहुत पहले ही शरीर और मन से मुक्त हो चुके। मौत आई उसके पहले मर चुके। उसके पहले उन्होंने शाश्वत जीवन को जान लिया। बुद्ध की जब मृत्यु हुई, तो उनके शिष्य रोने लगे। बुद्ध ने कहा, चुप हो जाओ नासमझो। मुझे मरे तो लंबा अरसा हो गया। मैं बयालीस साल पहले उस रात मर गया, जिस दिन बुद्ध हुआ। अब क्या रो रहे हो! बयालीस साल बाद! आज कुछ नया नहीं हो रहा है। यह तो घटना घट चुकी। बयालीस साल पहले उस राम पूर्णिमा की--मैंने देख लिया कि मैं शरीर नहीं, मन नहीं। बात खतम हो गई। मौत तो उसी दिन हो गई। रोओ मत। रोने का कुछ भी नहीं है। क्योंकि जो है, वह रहेगा। और जो नहीं है, वह नहीं ही है। वह जाता है, तो जाने दो। सपने ही टूटते हैं--सत्य नहीं टूटते हैं। तो जो परम ज्ञान को उपलब्ध है, वह भी सुखी। महासुख बुद्ध ने उसे कहा है--भेद करने को। अज्ञानी सुखी होता है। धन मिल जाता है, लाटरी मिल जाती है--सुखी हो जाता है। पद मिल जाता है--सुखी हो जाता है। खिलौनों में--माटी के खिलौनों में भरम जाता है! एक भ्रम टूटता नहीं कि दूसरे भ्रमों में उलझ जाता है। नए-नए भ्रम खड़े करता रहता है। झमेले में लगा रहता है। यह कर लूं--वह कर लूं--आपाधापी! इसमें इतना उलझाव होता है, इतना व्यस्त कि पता ही नहीं चलता कि कब जिंदगी आई, कब जिंदगी गुजर गई! कब सुबह हुई, कब सांझ हो गई! कब सूरज उगा, कब डूब गया! बचपन खिलौनों में निकल जाता है, जवानी भी खिलौने में निकल जाती है। बदल जाते हैं खिलौने। बच्चों के खिलौने छोटे हैं, स्वभावतः, जवानों के खिलौने जरा बड़े हैं! मगर आश्चर्य तो यह है कि बुढ़ापा भी खिलौनों में ही निकलता है। कम से कम बुढ़ापे में आते-आते तो Page 151 of 255 http://www.oshoworld.com
SR No.009965
Book TitleJyo tha Tyo Thaharaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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