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________________ ज्यों था त्यों ठहराया निश्चय ही ऐसा ही है। मूढ का अर्थ है--सोया हुआ, जिसे होश नहीं। जी रहा है, लेकिन पता नहीं क्यों! चलता भी है, उठता भी है, बैठता भी है--यंत्रवत! जिंदगी कैसे गुजर जाती है, जन्म कब मौत में बदल जाता है, दिन कब रात में ढल जाता है--कुछ पता ही नहीं चलता। जो इतना बेहोश है, उसे दुख का बोध नहीं हो सकता। बेहोशी में दुख का बोध कहां! झेलता है दुख, पर बोध नहीं है, इसलिए मानता है कि सुखी हूं। करीब-करीब प्रत्येक व्यक्ति इसी भ्रांति में है कि सब ठीक है। जिससे पूछो--कैसे हो--वही कहता है--ठीक हं। और ठीक कुछ भी नहीं। सब गैर-ठीक है। जिससे पूछो, वही कहता है, मजा है! आनंद है! परमात्मा की बड़ी कृपा है! शायद उसे यह भी बोध नहीं कि वह क्या कह रहा है। न सुनने वाले को पड़ी है, न बोलने वाले को पड़ी है कुछ सोचने की। कहने वाला कह रहा है, सुनने वाला सुन रहा है। न कहने वाले को प्रयोजन है--क्यों कह रहा है। न सुनने वाले को चिंता है कि क्या कहा जा रहा है! ऐसी बेहोशी में सुख की भांति होती है। पशु ऐसी ही बेहोशी में जीते हैं--और निन्यानबे प्रतिशत मनुष्य भी। पशु शब्द बड़ा प्यारा है। पशु का अर्थ है--जो पाश में बंधा हो। पशु का अर्थ सिर्फ जानवर नहीं; पशु का बड़ा वैज्ञानिक अर्थ है--बंधा हुआ; मोह के पाश में बंधा हुआ; मूर्छा के बंधनों में जकड़ा हुआ; आसक्तियों में; खोया हुआ सपनों में। पशुओं को तुमने दुखी न देखा होगा, रोते न देखा होगा, पीड़ित न देखा होगा। इसलिए तो पशुओं में कोई बुद्ध नहीं होता। जब पीड़ा का ही पता न चलेगा, तो पीड़ा से मुक्त होने की बात ही कहां उठती है! प्रश्न ही नहीं उठता। मनुष्यों में कभी कोई एकाध व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है; कभी। अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं ऐसे लोग; करोड़ों में कोई एक। कौन बुद्धत्व को उपलब्ध होता है? वही जिसे जीवन की पीड़ा ठीक-ठीक दिखाई पड़ती है, जिसे इतना होश आ जाता है कि जीवन दुख ही दुख है। आशा है सुख की, मगर मिलता कहां? दौड़ते हैं पाने के लिए, मगर पहुंचता कौन है? हाथ खाली के खाली रह जाते हैं। धन भी इकट्ठा हो जाता है, पद पर भी बैठ जाते हैं, मगर भीतर की रिक्तता नहीं भरती, सो नहीं भरती। भीतर का दीया नहीं जलता, सो नहीं जलता। धन से जलेगा भी कैसे? पद से भीतर रोशनी भी कैसे होगी? कोई संबंध नहीं दोनों का। धन बाहर है, भीतर निर्धनता है। बाहर के धन से भीतर की निर्धनता कैसे मिटे? महल में रहो कि झोपड़े में, रहोगे तो तुम ही! तुम अगर झोपड़े में दुखी हो, तो महल में भी दुखी रहोगे! तुम अगर झोपड़े में सोए हो, तो महल में सोओगे। लेकिन झोपड़े में जो है, वह भी सोच रहा है, सुखी हूं। राह के किनारे जो भिखमंगा बैठा है--लंगड़ा, लूला, अंधा, बहरा, कुष्ट से गला जा रहा है, हाथ-पैर गिर रहे हैं टूट-टूटकर--वह भी जीए जा रहा है! पता नहीं किस आशा में! किस भ्रांति में। Page 149 of 255 http://www.oshoworld.com
SR No.009965
Book TitleJyo tha Tyo Thaharaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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